Tuesday, August 25, 2009

'विभाजन का दोषी कौन'।

भारत विभाजन के 62 साल बाद अभी भी 'विभाजन क्यों और कैसे हुआ' की जगह यह सवाल ज्यादा चर्चित है कि 'विभाजन का दोषी कौन'। इसके लिए कभी अंग्रेज, तो कभी मोहम्मद अली जिन्ना कठघरे में खड़े किए जा चुके हैं। अभी हाल में अपनी पुस्तक 'जिन्ना : भारत विभाजन के आईने में' में बीजेपी के वरिष्ठ नेता माने जाने वाले जसवंत सिंह ने जिन्ना को बाइज्जत बरी करके जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को कठघरे में खड़ा कर दिया है। उनके इन विचारों से नाराज होकर बीजेपी ने उन्हें पार्टी से ही निकाल बाहर किया। इस तरह जो नाइंसाफी जसवंत सिंह ने नेहरू और पटेल के साथ की, लगभग वही नाइंसाफी बीजेपी ने जसवंत सिंह के साथ की है। एक तरह से देखा जाए तो जसवंत सिंह ने न सिर्फ नेहरू-पटेल के साथ नाइंसाफी की है, बल्कि उससे भी अधिक जिन्ना के साथ की है। जिस आंदोलन के परिणामस्वरूप पाकिस्तान का जन्म हुआ, उसमें जिन्ना की केंदीय भूमिका को अनदेखा करना नैतिक रूप से उनके साथ ऐतिहासिक नाइंसाफी है। यह सच है कि पाकिस्तान में कायदे आजम के रूप में प्रतिष्ठित जिन्ना को भारत में खलनायक के रूप में देखा जाता रहा है। जिन्ना को अलग-अलग समय में 'कम्युनल' या फिर 'सेक्युलर' घोषित किया जा चुका है। जसवंत सिंह की किताब छपने से लगभग चार साल पहले लाल कृष्ण आडवाणी पाकिस्तान जाकर जिन्ना को सेक्युलर घोषित कर चुके हैं। इस तरह से जिन्ना पर 'सेक्युलर' या सांप्रदायिक होने के ठप्पे तो अक्सर लगते रहे हैं, लेकिन इससे एक ऐतिहासिक किरदार के रूप में उनका मूल्यांकन करने में कोई मदद नहीं मिली है। जिन्ना के साथ न्याय तभी होगा, जब पाकिस्तान आंदोलन में उनकी भूमिका को सही प्रकार से समझा जाएगा। भारत विभाजन की कहानी भारतीय राजनीति की तीन महाशक्तियों- ब्रिटिश सरकार, कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग के परस्पर टकरावों में निहित है। अलग-अलग समय पर इन तीनों शक्तियों को विभाजन के लिए जिम्मेदार ठहराया जा चुका है। ब्रिटिश सरकार ने भारत में ऐसी राजनीति की नींव डाली जिसके तहत समस्त चुनाव क्षेत्र धार्मिक आधार पर निर्धारित किए गए। साथ ही चुनाव क्षेत्र, मतदाताओं तथा निर्वाचित सदस्यों को भी धर्म के आधार पर बांट दिया गया। इस तरह से समूचे भारत की चुनावी राजनीति हिंदू और मुस्लिम, दो खंडों में बंट गई। इस तरह की राजनीतिक संरचना ने जहां एक तरफ सांप्रदायिकता को काफी बल दिया, वहीं सेक्युलर राजनीति के लिए अड़चनें पैदा कीं। भारत में 1937 और 1946 में जो आम चुनाव हुए, वे इसी व्यवस्था के अंतर्गत हुए और इसके नतीजतन हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ और वह तेजी से बढ़ता गया। 1946 के चुनावों के तुरंत बाद 1947 में देश का बंटवारा हुआ। यह साफ है कि स्वतंत्रता से पूर्व भारत में राजनीति के सांप्रदायीकरण का मुख्य कारण वही पृथक निर्वाचन प्रणाली थी, जिसकी शुरुआत ब्रिटिश सरकार ने की थी। इस राजनीतिक व्यवस्था ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के सामने नई समस्याएं खड़ी कीं। राष्ट्रीय आंदोलन का वैचारिक आधार था: साम्राज्यवाद विरोध और राष्ट्रीय एकता। लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के अलग-अलग राजनीतिक मंच तैयार हो जाने से राष्ट्रीय एकता की परियोजना कमजोर पड़ गई। साथ ही इसने 'हिंदू राजनीति' और 'मुस्लिम राजनीति' के अलग-अलग दावेदारों को बढ़ावा दिया। मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा (और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी, जिसकी स्थापना 1925 में हो चुकी थी) की अलगाववादी राजनीति का उदय इसी प्रक्रिया का तार्किक परिणाम था। यह सच है कि राष्ट्रीय आंदोलन को साम्राज्यवाद विरोध में तो निर्णायक सफलता मिली, लेकिन राष्ट्रीय एकता, विशेष रूप से हिंदू-मुस्लिम एकता बनाए रखने में वह निश्चित रूप से असमर्थ रहा। भारत विभाजन में नेहरू और सरदार पटेल की भूमिका यही थी कि ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्मित राजनीतिक संरचना में निहित सांप्रदायीकरण से निपटने की उन्होंने कोशिश तो की, लेकिन वे कामयाब न हो सके। भारतीय राजनीति की तीसरी महाशक्ति- जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग- ने सक्रिय रूप से सांप्रदायिकता फैलाने का अभियान चलाया। पाकिस्तान का निर्माण इसी सांप्रदायिक राजनीति की चरम परिणति था। जिन्ना ने 1937 के बाद से और खास तौर पर 1940 में पाकिस्तान आंदोलन का वैचारिक आधार तैयार किया। इस वैचारिक आधार के तहत उन्होंने द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार भारत में एक नहीं बल्कि दो राष्ट्र थे, हिंदू और मुस्लिम। जिन्ना के अनुसार एक अलग और विशिष्ट राष्ट्र होने के नाते भारतीय मुसलमानों का एक अलग राष्ट्र-राज्य भी होना चाहिए। इस सिद्धांत के आधार पर मुस्लिम लीग ने एक आंदोलन की नींव डाली। इस आंदोलन और संगठन की बागडोर जिन्ना के हाथ में थी। 1940 से 1947 तक जिन्ना इस विचार पर अडिग रहे कि भारतीय मुसलमानों का अपना अलग देश और अपनी सरकार होनी चाहिए। उन्होंने कांग्रेस और ब्रिटिश सरकार पर लगातार दबाव डाला कि वे पाकिस्तान की वैधता को स्वीकार करें। इसके लिए वे राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का सहारा लेने में भी नहीं चूके। इसी ब्लैकमेलिंग के तहत उन्होंने अगस्त 1946 में मुसलमानों का 'डायरेक्ट ऐक्शन' के लिए आह्वान किया। इसके परिणामस्वरूप अविभाजित बंगाल में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए। सिर्फ कलकत्ता शहर में चार दिनों में 5 हजार से भी ज्यादा लोग मारे गए। बंगाल के दंगों की प्रतिक्रिया में बिहार और मुंबई में भी सांप्रदायिक हिंसा हुई। 1946 के आम चुनाव तथा अगस्त-सितंबर की सांप्रदायिक हिंसा के बाद भारत का बंटवारा लगभग अवश्यंभावी हो गया। वे लोग जो न सिर्फ सैद्धांतिक रूप से विभाजन के विरोधी थे, बल्कि जिन्होंने हर संभव प्रयास किया कि देश का विभाजन न हो, वे भी इन भयावह दंगों को देखकर विचलित हो गए और उन्हें मजबूर होकर विभाजन को स्वीकार करना पड़ा। नेहरू और पटेल की भूमिका को इसी संदर्भ में समझने की जरूरत है। जिन्ना पाकिस्तान आंदोलन के निर्माता और प्रवर्तक दोनों थे। पाकिस्तान आंदोलन की विचारधारा, इसकी रणनीति तथा इससे जुड़ी राजनीति के सबसे महत्त्वपूर्ण कर्ताधर्ता जिन्ना ही थे। उन्होंने इस विचारधारा के प्रचार और प्रसार में अग्रणी भूमिका निभाई। उनकी इस भूमिका को नकारना नैतिक रूप से उनके प्रति और विभाजन को संभव बनाने की ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति नाइंसाफी होगी।

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