भारत जैसे धर्म प्रधान और तीज-त्योहारों वाले देश में होली इकलौता त्योहार है, जो आपके पास धर्म या देवताओं का सहारा ले कर नहीं पहुंचता। इसके साथ जो किंवदंतियां या धर्म कथाएं आ जुड़ी हैं, उनका प्रयोजन आपको किसी देवता विशेष की पूजा करने के लिए प्रेरित करना नहीं है। यह त्योहार हम पुण्य कमाने या अपने पाप नष्ट करने के लिए नहीं मनाते। दशहरा पर आप दुर्गा की पूजा करते हैं, दीवाली पर लक्ष्मी की पूजा करते हैं, मकर संक्रांति और बैसाखी पर दान का पुण्य अर्जित करते हैं, इनके बिना वे त्योहार पूरे नहीं होते। लेकिन होली पर किसकी पूजा करते हैं? न नरसिंहावतार की और न प्रह्लाद की। प्रह्लाद का चरित्र सिर्फ आपको सत्पथ पर चलने की प्रेरणा देता है, लेकिन होली के अपने आयोजन से उसका कोई संबंध नहीं जुड़ता। यह लोक पर्व है, मनुष्यता का पर्व, समाज का पर्व। इसमें आप समाज को सर्वोपरि मानने की घोषणा करते हैं। भारत में होली जैसी धार वाला दूसरा कोई और त्योहार नहीं है। आप लोगों से पूछिए -वे या तो होली से नफरत करते हैं या उसके हुड़दंग में शामिल होते हैं। या तो वे रंग खेलने निकल पड़ते हैं या घर में छुपकर बैठ जाते हैं। दीवाली के साथ ऐसा नहीं होता, दशहरा के साथ ऐसा नहीं होता कि लोग उनका
नाम सुन कर ही मतवाले हो उठें या फिर घृणा से भर उठें। ऐसे दिनों पर दरवाजा बंद कर घर में छुप कर कोई नहीं बैठता। इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। उन त्योहारों को कोई कम उत्साह से मनाता है और कोई ज्यादा उत्साह से। लेकिन इतना तीखा विभाजन नहीं होता। ऐसे प्रेम और नफरत का रिश्ता सिर्फ होली के साथ ही होता है। होली के प्रति उदासीन नहीं रहा जा सकता। यह त्योहार आपसे दो टूक सवाल करता है -आप इस खेमे में हो या उस खेमे में। यह ऊपर से ओढ़ी हुई गंभीरता को चीर कर फेंक देता है और आपको आपके असली रूप में उजागर करता है। इसीलिए इसे व्यक्ति के विरेचन का पर्व कहा जाता है। हमारी दमित इच्छाएं और कुंठाएं विमुक्त हो जाती हैं। इस दिन हम देख पाते हैं कि किस तरह समाज ने हमारी कुरूपता देख कर भी हमें खारिज नहीं किया। यह बोध व्यक्ति के विरेचन से कहीं आगे ले जाता है। होली में भारत का सांस्कृतिक मानस छुपा है। उस मानस में क्या है? इसे आप हुल्लड़ और रंगपाशी के रिवाजों से समझिए। आप सजे-संवरे बैठे हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों का एक हुजूम आता है और आपको बदशक्ल बना देता है। आप के काले बालों में लाल गुलाल, गोरे चेहरे पर हरा रंग, सफेद कुर्ते पर कीचड़-मिट्टी पोत देता है। और आप हंसते हैं, नाराज नहीं होते। क्योंकि आप किसी व्यक्ति को अच्छे या बुरे रूप में स्वीकार करने के समाज के अधिकार को स्वीकार करते हैं। आपके गोरे रंग या काले बालों को कितना सुंदर माना जाए, यह तो समाज ही तय करता है। आप आईजी-डीआईजी, प्रफेसर, कवि या डॉक्टर हैं, पर किस प्रतिष्ठा के काबिल हैं, यह तो समाज ही तय करता है। होली का फूहड़पन हमको-आपको इसी सचाई का एहसास कराता है। इस बात का एहसास कि जो मान-प्रतिष्ठा है, जिसे हम अपनी खासियत मान लेते हैं, वह सब समाज का ही दिया है। अन्यथा हम सब किसी अन्य मनुष्य की तरह दो हाथ और दो पैरों वाले प्राणी हैं, कोई किसी से अलग नहीं। कैसा राजा, कैसा रंक। टीवी का एक विज्ञापन है -रंग से सराबोर एक बच्चा बारी-बारी से कई लोगों के पास जाता है और उनसे टॉफी के लिए पैसे मांगता है। उसके चेहरे पर इतना रंग पुता है कि उनमें से कोई नहीं पहचान पाता कि वह उनका बच्चा नहीं है। होली दरअसल हमें यही समझाती है कि जिंदगी के कई रंग ऐसे हैं, जिनमें डूबने के बाद हम सब एक जैसे होते हैं। हमारी वृत्तियों में, खुशियों में, मन के भीतर बैठे किसी बच्चे या युवा के नैसर्गिक उल्लास में कोई फर्क नहीं होता। जब हम बदशक्ल बनाए जाने या अपने ड्रॉइंग रूम को गंदा किए जाने से नफरत करते हैं, तो असल में हम उस झूठे अहंकार से घिरे होते हैं। किसी ने हमें रंग लगा दिया, कपड़े गीले कर दिए, भागने को मजबूर कर दिया तो हमारी ठसक, हमारी वह नकली प्रतिष्ठा, इज्जत की कलई उतर गई। लेकिन अपने लाड़ले के गाल पर एक लाल सा टीका लगा कर क्यों भला खुश होते हैं? या किसी को भूत सा चेहरा लिए झूम-झूम कर जोगिरा गाते देख कर क्यों हंसी आती है? या जब प्रेमिका चुटकी भर गुलाल फेंक कर भागती है, तब एक पिचकारी उसे मार कर आप भला क्यों निहाल हो जाते हैं? इसलिए कि यह पिचकारी उसे अपने रंग में रंग लेने, अपने हिसाब से ढाल लेने की आपकी इच्छा को मंजूर कर लेने की उसकी इच्छा का प्रतीक है। ठीक है, तुम जैसा चाहो, वैसे रंग डालो। लेकिन फिर ऐसे ही भला आपको भी कोई क्यों नहीं रंगे? क्या आपके दोस्तों और संबंधियों का -आपसे प्रेम करने वाले दूसरे लोगों का आप पर कोई अधिकार नहीं बनता? यदि एक दिन कपड़े पर कीचड़ डाल कर, किसी को मूर्ख नरेश कह कर मन की नफरत या गुस्सा निकल जाए तो क्या हर्ज है? सालों भर मन में दबा रहेगा तो रोडरेज होगा, पार्किन्ग और खिड़की का शीशा टूटने पर झगड़ा होगा। होली की थोड़ी सी ठिठोली, अवैध जुगुप्साकारी संबंधों से तो बेहतर होगी -जगहंसाई होगी पर परिवार तो नहीं तोड़ेगी। होली सिर्फ रंगों से नहीं होती। हास्य इसमें अनिवार्य रूप से शामिल है। लोग एक दूसरे का नामकरण करते हैं, चटपटी टिप्पणियां करते हैं, मूर्ख बनाते हैं और ऐसा करते हुए व्यक्ति की तमाम पहचान गौण हो जाती हैं और हर व्यक्ति समान धरातल पर आ खड़ा होता है। यह पैमाना है किसी समाज के सदस्यों की व्यक्तिवादी प्रवृत्ति को नापने का। हमारी सहनशक्ति को जांचने का। जो समाज एक-दूसरे पर हंसने का माद्दा नहीं रखता, वह भला एक साथ खुशी से जीवन कैसे गुजार सकता है। यह समाज और उसकी इकाइयों की सहनशक्ति का पैमाना है। आप लोगों पर हंसते हैं और लोग आप पर हंसते हैं, फिर भी कोई बुरा नहीं मानता। और सब लोग साथ रहते हैं।
नाम सुन कर ही मतवाले हो उठें या फिर घृणा से भर उठें। ऐसे दिनों पर दरवाजा बंद कर घर में छुप कर कोई नहीं बैठता। इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती। उन त्योहारों को कोई कम उत्साह से मनाता है और कोई ज्यादा उत्साह से। लेकिन इतना तीखा विभाजन नहीं होता। ऐसे प्रेम और नफरत का रिश्ता सिर्फ होली के साथ ही होता है। होली के प्रति उदासीन नहीं रहा जा सकता। यह त्योहार आपसे दो टूक सवाल करता है -आप इस खेमे में हो या उस खेमे में। यह ऊपर से ओढ़ी हुई गंभीरता को चीर कर फेंक देता है और आपको आपके असली रूप में उजागर करता है। इसीलिए इसे व्यक्ति के विरेचन का पर्व कहा जाता है। हमारी दमित इच्छाएं और कुंठाएं विमुक्त हो जाती हैं। इस दिन हम देख पाते हैं कि किस तरह समाज ने हमारी कुरूपता देख कर भी हमें खारिज नहीं किया। यह बोध व्यक्ति के विरेचन से कहीं आगे ले जाता है। होली में भारत का सांस्कृतिक मानस छुपा है। उस मानस में क्या है? इसे आप हुल्लड़ और रंगपाशी के रिवाजों से समझिए। आप सजे-संवरे बैठे हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों का एक हुजूम आता है और आपको बदशक्ल बना देता है। आप के काले बालों में लाल गुलाल, गोरे चेहरे पर हरा रंग, सफेद कुर्ते पर कीचड़-मिट्टी पोत देता है। और आप हंसते हैं, नाराज नहीं होते। क्योंकि आप किसी व्यक्ति को अच्छे या बुरे रूप में स्वीकार करने के समाज के अधिकार को स्वीकार करते हैं। आपके गोरे रंग या काले बालों को कितना सुंदर माना जाए, यह तो समाज ही तय करता है। आप आईजी-डीआईजी, प्रफेसर, कवि या डॉक्टर हैं, पर किस प्रतिष्ठा के काबिल हैं, यह तो समाज ही तय करता है। होली का फूहड़पन हमको-आपको इसी सचाई का एहसास कराता है। इस बात का एहसास कि जो मान-प्रतिष्ठा है, जिसे हम अपनी खासियत मान लेते हैं, वह सब समाज का ही दिया है। अन्यथा हम सब किसी अन्य मनुष्य की तरह दो हाथ और दो पैरों वाले प्राणी हैं, कोई किसी से अलग नहीं। कैसा राजा, कैसा रंक। टीवी का एक विज्ञापन है -रंग से सराबोर एक बच्चा बारी-बारी से कई लोगों के पास जाता है और उनसे टॉफी के लिए पैसे मांगता है। उसके चेहरे पर इतना रंग पुता है कि उनमें से कोई नहीं पहचान पाता कि वह उनका बच्चा नहीं है। होली दरअसल हमें यही समझाती है कि जिंदगी के कई रंग ऐसे हैं, जिनमें डूबने के बाद हम सब एक जैसे होते हैं। हमारी वृत्तियों में, खुशियों में, मन के भीतर बैठे किसी बच्चे या युवा के नैसर्गिक उल्लास में कोई फर्क नहीं होता। जब हम बदशक्ल बनाए जाने या अपने ड्रॉइंग रूम को गंदा किए जाने से नफरत करते हैं, तो असल में हम उस झूठे अहंकार से घिरे होते हैं। किसी ने हमें रंग लगा दिया, कपड़े गीले कर दिए, भागने को मजबूर कर दिया तो हमारी ठसक, हमारी वह नकली प्रतिष्ठा, इज्जत की कलई उतर गई। लेकिन अपने लाड़ले के गाल पर एक लाल सा टीका लगा कर क्यों भला खुश होते हैं? या किसी को भूत सा चेहरा लिए झूम-झूम कर जोगिरा गाते देख कर क्यों हंसी आती है? या जब प्रेमिका चुटकी भर गुलाल फेंक कर भागती है, तब एक पिचकारी उसे मार कर आप भला क्यों निहाल हो जाते हैं? इसलिए कि यह पिचकारी उसे अपने रंग में रंग लेने, अपने हिसाब से ढाल लेने की आपकी इच्छा को मंजूर कर लेने की उसकी इच्छा का प्रतीक है। ठीक है, तुम जैसा चाहो, वैसे रंग डालो। लेकिन फिर ऐसे ही भला आपको भी कोई क्यों नहीं रंगे? क्या आपके दोस्तों और संबंधियों का -आपसे प्रेम करने वाले दूसरे लोगों का आप पर कोई अधिकार नहीं बनता? यदि एक दिन कपड़े पर कीचड़ डाल कर, किसी को मूर्ख नरेश कह कर मन की नफरत या गुस्सा निकल जाए तो क्या हर्ज है? सालों भर मन में दबा रहेगा तो रोडरेज होगा, पार्किन्ग और खिड़की का शीशा टूटने पर झगड़ा होगा। होली की थोड़ी सी ठिठोली, अवैध जुगुप्साकारी संबंधों से तो बेहतर होगी -जगहंसाई होगी पर परिवार तो नहीं तोड़ेगी। होली सिर्फ रंगों से नहीं होती। हास्य इसमें अनिवार्य रूप से शामिल है। लोग एक दूसरे का नामकरण करते हैं, चटपटी टिप्पणियां करते हैं, मूर्ख बनाते हैं और ऐसा करते हुए व्यक्ति की तमाम पहचान गौण हो जाती हैं और हर व्यक्ति समान धरातल पर आ खड़ा होता है। यह पैमाना है किसी समाज के सदस्यों की व्यक्तिवादी प्रवृत्ति को नापने का। हमारी सहनशक्ति को जांचने का। जो समाज एक-दूसरे पर हंसने का माद्दा नहीं रखता, वह भला एक साथ खुशी से जीवन कैसे गुजार सकता है। यह समाज और उसकी इकाइयों की सहनशक्ति का पैमाना है। आप लोगों पर हंसते हैं और लोग आप पर हंसते हैं, फिर भी कोई बुरा नहीं मानता। और सब लोग साथ रहते हैं।
No comments:
Post a Comment