Thursday, April 2, 2015

कई चीजों के ठेके तो दशकों से फाइनल नहीं

मेट्रो मैन के नाम से मशहूर  श्रीधरन ने कहा है कि भारतीय रेलवे को सामानों की खरीदारी में हर साल कम से कम 10 हजार करोड़ रुपए का चूना लग रहा है । श्रीधरन की रिपोर्ट में कहा गया है कि खरीद अधिकारों को विकेंद्रित करने यानी निचले स्तर तक देने से इस लूट को रोका जा सकता है।
श्रीधरन ने रेलवे के जनरल मैनेजर्स को वित्तीय अधिकार देने और अधिकारों के विकेंद्रीकरण संबंधी अपनी फाइनल रिपोर्ट में कहा है कि इस समय खरीद अधिकार सीमित होने से रेलवे का बहुत ज्यादा पैसा महज कुछ हाथों में है। इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
श्रीधरन की अध्यक्षता वाली इस कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में रेलवे के कई वरिष्ठ अधिकारियों की भी राय ली है। मौजूदा खरीद प्रक्रिया का विश्लेषण कर कमिटी इस नतीजे पर पहुंची है कि जवाबदेही तय करने और अधिकारों को विकेंद्रित करने से रेलवे की सालाना आय में भारी अंतर आ जाएगा। इससे हर साल सामान की खरीद में करीब 5 हजार करोड़ रुपए और कामों के ठेके देने में भी इतने ही रुपयों की बचत होगी।
कमिटी ने अपनी फाइनल रिपोर्ट 15 मार्च को दाखिल की थी। इसमें कहा गया है कि बोर्ड को कोई भी वित्तीय फैसले नहीं लेने चाहिए। खुद अपनी जरूरत के सामान की खरीदारी भी उत्तरी रेलवे से करानी चाहिए। ये अधिकार जनरल मैनेजर और निचले स्तर के अधिकारियों को दिए जाने की भी सिफारिश की गई है।
आपको बता दें कि रेलवे देश में सबसे ज्यादा खरीदारी करने वाली दूसरी सबसे बड़ी एजेंसी है। इससे ज्यादा की खरीदारी सिर्फ डिफेंस के सामान की होती है। रेलवे हर साल खरीदारी पर करीब 1 लाख करोड़ रुपए खर्च करती है, जिसमें से करीब आधी रकम से रेलवे बोर्ड खरीदारी करता है।
पिछले साल नवंबर में श्रीधरन के प्रारंभिक रिपोर्ट देने के बाद से ही रेलवे ने अधिकारों के विकेंद्रीकरण का काम शुरू कर दिया है। अब श्रीधरन कमिटी ने कहा है कि रेलवे बोर्ड का गठन रेलवे की नीतियां, योजनाएं, नियम और सिद्धांतों को बनाने, इनकी जांच करने और रेलवे को दिशानिर्देश देने को हुआ था, लेकिन आज बोर्ड इनमें से कोई भी काम नहीं कर रहा है।
कमिटी ने विस्तार से विश्लेषण के लिए डीजल, कंक्रीट स्लीपर्स, 53-s सीमेंट जैसे सामनों की खरीद प्रक्रिया का भी अध्धयन किया। उनके मुताबिक, रेलवे देश में सबसे ज्यादा डीजल की खरीद करता है और पिछले 15 महीनों से इसका नया ठेका ही फाइनल नहीं हुआ है। कई चीजों के ठेके तो दशकों से फाइनल नहीं हुए हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, हालात इतने खराब हो गए हैं कि रेलवे के कामकाज की इस व्यवस्था को अच्छे से झकझोरने की जरूरत है, जिससे प्रभावी और बेहतर बिजनस के फैसले लिए जा सकें। इसमें कहा गया है कि बोर्ड को फील्ड में मौजूद अपने शीर्ष अधिकारियों यानी जनरल मैनेजर्स की बिजनस की क्षमता पर ही शक है।
इसके अलावा रिपोर्ट में रेलवे की ढुलाई और यात्रियों की संख्या (हवाई और सड़क के मुकाबले) कम होने पर भी चिंता जताई गई है। रिपोर्ट के मुताबिक 1960-61 के 82 फीसदी (टन के हिसाब से) के मुकाबले आज रेलवे से केवल 30 फीसदी ढुलाई होती है। श्रीधरन ने कहा है कि शायद ही रेलवे के मुकाबले किसी और भारतीय संस्था की इतनी ज्यादा समितियों ने समीक्षा की होगी, लेकिन विडंबना यह है कि सारी सिफारिशें आज भी धूल फांक रही हैं।

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