Monday, April 27, 2015

खुदकुशी को लेकर इतना हंगामा

भारत में किसान की आत्महत्या की खबरें आती रहती हैं लेकिन पिछले दिनों आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान राजस्थान के एक किसान गजेंद्र सिंह की खुदकुशी के बाद इस चर्चा ने जोर पकड़ लिया है। ऐसा नहीं है कि किसानों की खुदकुशी का मामला पहली बार चर्चा में आया है बल्कि करीब-करीब हमेशा इस पर चर्चा का माहौल रहता है लेकिन एनडीए सरकार के प्रस्तावित लैंड बिल के बाद इस पर बहस का बाजार और गर्म हो गया है।
सवाल यह उठता है कि जो लोग किसानों की खुदकुशी को लेकर इतना हंगामा कर रहे हैं क्या वे किसानों के हित को लेकर उतने ही गंभीर हैं? क्या उन्होंने गंभीरता से यह जानने की कोशिश की किसान क्यों खुदकुशी कर रहे हैं? कौन-सी वह मजबूरी है जो उनको इतना संगीन कदम उठाने पर गौर कर रही है।

अंग्रेजी वेबसाइट फर्स्ट पोस्ट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब 23.42 करोड़ लोग खेती-बाड़ी से जुड़े हुए हैं। अगर नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो के पास उपलब्ध आंकड़ों पर विश्वास किया जाए तो इन किसानों में से 13,754 जो उनकी जनसंख्या का 0.0058 फीसदी है, ने आत्महत्या की। दूसरी तरफ भारत में आम आत्महत्याओं की संख्या 1,87,000 है जो करीब 0.0181 फीसदी है। लेकिन, आम आत्महत्याओं को लेकर इतनी चर्चा नहीं होती और न हीं कोई राजनीतिक पार्टी इसे अपने अभियान का साधन बनाना पसंद करती है जितना किसानों के मुद्दे को लेकर सक्रिया है।
अगर इस की गहराई में जाए तो पता चलता है कि राजनीतिक पार्टियां खासकर इस मुद्दे को राजनीतिक हितों को लेकर ज्यादा उठाती हैं। अपने राजनीतिक भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए और कुछ सरकारें लोगों का असल मुद्दे से ध्यान भटकाने एवं किसानों के नाम पर बड़ा फंड हथियाने के लिए ऐसा करती हैं।
2008
में किसानों के कर्ज को माफ करने और कर्ज राहत स्कीम के नाम पर 6,530 करोड़ रुपये खर्च किए गए। लोन चुकाने के लिए महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में प्रत्येक किसान को 5-5 लाख रुपये दिए गए। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल के 31 उन जिलों में राहत पैकेज के नाम पर बड़ा फंड खर्च किया गया जहां से किसानों की खुदकुशी की खबरें आईं।
लेकिन, इस सबके बावजूद किसानों की हालत में कोई फर्क नहीं आई। इसे देखकर यही लगता है कि किसानों की समस्या पर जब तक गंभीरता से गौर नहीं किया जाएगा तब तक खुदकुशी को रोका नहीं जा सकता है।

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