Tuesday, April 28, 2009

राजनीतिक दल अभी भी महिलाओं को आगे लाने में परहेज बरत रहे

भारतीय राजनीति में भले ही इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, जयललिता से लेकर मायावती तक कुछ प्रभावशाली महिलाएं अपना असर छोड़ने में सफल रही हों, पर जमीनी और मंझोले स्तर की सियासत में महिलाओं की स्थिति अब भी अछूत जैसी ही है। राजनीतिक दल अभी भी महिलाओं को आगे लाने में परहेज बरत रहे हैं। अव्वल तो उन्हें पार्टी का टिकट ही नहीं दिया जाता और अगर कोई महिला अपने दमखम पर कुछ आगे बढ़ आई हो, तो उसे अहम जिम्मेदारियों से दूर रखा जाता है। अभी विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवारों की जो सूची आ रही है, उससे एक बार फिर साफ हो गया है कि हमारे राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में कितना फर्क है। अलग-अलग समय पर लगभग हरेक पार्टी ने महिला आरक्षण बिल का समर्थन किया है, महिलाओं को राजनीति में अधिकाधिक भागीदारी देने की बात भी कही है, पर जब टिकट देने की बारी आई है, तो उन्हें साफ भुला दिया है। महिला आरक्षण बिल के पास होने में कई अड़चनें हो सकती हैं, लेकिन जो दल सियासत में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के पक्षधर हैं, उन्हें इस चुनाव के रूप में तो एक अवसर मिला है। वे चाहें तो महिलाओं को एक तिहाई टिकट देकर एक मिसाल कायम कर सकते हैं। पर कोई पार्टी ऐसा करने को तैयार नहीं दिखती। इससे महिला संगठनों के इस आरोप को बल मिला है कि हमारे सियासी दल पुरुष प्रधान मानसिकता से ग्रस्त हैं। वे ऊपर से चाहे जो कहें, मन से महिलाओं को राजनीति में भागीदारी नहीं देना चाहते। जो लेफ्ट पार्टियां महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में एक तिहाई आरक्षण देने की बात सबसे जोरशोर से कहती रही हैं, उन्होंने भी इस बार महिलाओं का खयाल नहीं रखा। उन्होंने अपने गढ़ पश्चिम बंगाल में पिछले चुनाव की तुलना में महिलाओं को कम टिकट दिए हैं। राज्य में कुल 42 उम्मीदवारों में वाम मोर्चा की सिर्फ दो महिला उम्मीदवार हैं, जबकि पिछली बार पांच महिलाओं को टिकट दिए गए थे। गौर करने की बात है कि ये दो उम्मीदवार भी सीपीएम की हैं। सीपीआई, आरएसपी और फॉरवर्ड ब्लॉक ने तो एक भी महिला को इस लायक नहीं समझा। क्या इनके नेताओं को अपने ही भाषण याद नहीं जो इन्होंने महिला आरक्षण बिल के समर्थन में दिए थे? बीजेपी भी महिला आरक्षण बिल की हिमायत करती रही है, लेकिन अब तक जो उसकी सूची आई है उसमें महिलाओं का अपेक्षित प्रतिनिधित्व नहीं दिखाई पड़ता। पिछले दिनों बीजेपी नेता सुषमा स्वराज ने महिला आरक्षण बिल अब तक पास न होने के लिए यूपीए को जिम्मेदार ठहराया था और कहा कि एनडीए सरकार इसे जरूर पास करेगी। पूछा जा सकता है कि जब बीजेपी इसे लेकर इतना गंभीर है तो क्यों नहीं टिकट बांटने में वह महिलाओं का विशेष ध्यान रख रही है? कांग्रेस की अब तक की सूची से भी यही पता चलता है कि उसकी रुचि भी सिटिंग- गेटिंग में ही ज्यादा है। अब तक मध्य प्रदेश, गुजरात और असम की कुछ सीटों के लिए घोषित उम्मीदवारों में महिलाएं सिरे से गायब हैं जबकि कांग्रेसी नेता यह दोहराना नहीं भूलते कि सोनिया गांधी महिला आरक्षण बिल को लेकर काफी उत्सुक हैं और इसे हर हाल में पास कराना चाहती हैं। लेकिन वही इच्छा टिकट बांटने में क्यों नहीं झलक रही है? समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, आरजेडी के लालू प्रसाद यादव और जेडीयू के शरद यादव इस बात को लेकर चिंतित रहते हैं कि महिला आरक्षण बिल का लाभ कहीं संभ्रात वर्ग की महिलाएं न उठा ले जाएं। इसके लिए इन नेताओं ने आरक्षण के भीतर आरक्षण की वकालत की और पिछड़े तथा दलित वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से सीटें तय करने को कहा। इनकी आपत्तियों के कारण ही बिल पर बहस में नए आयाम जुड़े और इसके पास होने की प्रक्रिया और लंबी खिंचती गई। अब इन नेताओं से पूछा जाना चाहिए कि क्या टिकट बंटवारा करते समय ये दबे-कुचले वर्ग की उन महिलाओं का ध्यान रखेंगे, जिन्हें ये पॉलिटिक्स में भागीदारी देने की बात करते रहे हैं? समाजवादी पार्टी की सूची से तो ऐसा नहीं लगता। उनकी पार्टी से जयाप्रदा लड़ रही हैं, जो कहीं से भी शोषित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। लखनऊ से फिल्म अभिनेता संजय दत्त को लड़ाने की तैयारी है, लेकिन यदि कोर्ट ने उन्हें चुनाव लड़ने की अनुमति नहीं दी तो पार्टी उनकी जगह जया बच्चन या संजय दत्त की पत्नी मान्यता दत्त को टिकट देने के बारे में सोच रही है। असल में ये दल किसी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहते। इन्होंने उन लोगों को टिकट दिए हैं, जिनके जीतने की संभावना प्रबल है, ताकि ये दल सत्ता की दौड़ में बने रह सकें। इससे एक निष्कर्ष और भी निकलता है कि राजनीति के दरवाजे साधारण महिलाओं के लिए लगभग बंद हैं। राजनीति में वर्षों से सक्रिय बुजुर्ग नेता या तो खुद जमे रहना चाहते हैं या अपनी संतानों के लिए जगह सुनिश्चित करना चाहते हैं। जमीन से जुड़ा एक साधारण कार्यकर्ता चुनाव टिकट पाने के सपने भी नहीं देख सकता। यह एक तरह का नव-ब्राह्मणवाद है, जिसका शिकार कमोबेश सभी पार्टियां हैं। समाजवादी पार्टी या आरजेडी के पास अब इतनी फुर्सत नहीं है कि वह पिछड़े वर्ग की उन महिलाओं की पहचान करे जो राजनीति में आ सकती हैं और जनप्रतिनिधि बन कर जनता की सेवा कर सकती हैं। आम तौर पर इन पार्टियों ने उन्हीं गिनी-चुनी महिलाओं को टिकट दिए हैं, जो किसी न किसी स्थापित नेता या शख्सियत के परिवार से संबंधित रही हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि महिलाओं को राजनीति में भागीदारी दिए जाने की बातें छलावा थीं? क्या नई लोकसभा में भी महिला आरक्षण बिल को किसी न किसी बहाने टाल दिया जाएगा? हालांकि अब भी मौका है। पॉलिटिकल पार्टियां अगर मन से महिला आरक्षण बिल के साथ हैं तो वे टिकट बंटवारे में अपने इस इरादे का इजहार करें और महिलाओं को एक तिहाई टिकट दें।

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