चुनाव का समय नज़दीक़ आते ही सभी राजनीतिक दलों को मुसलमानों का ध्यान आने लगता है। सभी को भरमा देने वाला शब्द 'मुस्लिम वोट बैंक' वास्तव में अंग्रेजी पत्रकारिता की देन है। सच्चाई यह है कि वोट बैंक तो क्या एक ही मुस्लिम परिवार के सभी सदस्य भी एक ही पार्टी को अपना वोट नहीं देते। हां, इन भटकाने वाले शब्दों से बिचौलियों, दलालों और एजंटों को लाभ अवश्य हुआ है। मुसलमानों के वोटों की ठेकेदारी और सौदागरी करने वालों की कमी नहीं है। ये ठेकेदार हर चुनाव के बाद लाखों-करोड़ों की दौलत के मालिक हो जाते हैं। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार आज लगभग 25 करोड़ मुसलमान भारत में मौजूद हैं, जिनमें 10 से 15 करोड़ तो वोटर ही हैं। भारतीय मुसलमानों की त्रासदी यही है कि इतनी बड़ी संख्या होने के बाद भी वे यादवों, गूजरों, मीणाओं, दलितों आदि की तरह अपने अधिकार नहीं मनवा पाए हैं। पिछले दिनों मुसलमानों की कुछ पार्टियां भी बनीं, जैसे मुस्लिम उलेमा काउंसिल, यूडीएफ़ (यूनाइटेड डेमॉक्रेटिक फ्रंट ) आदि, जिनके रूहेरवां शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी व उनके साथी हैं। उलेमा काउंसिल के प्रवक्ता के अनुसार इस राजनीतिक पार्टी की स्थापना का मुख्य कारण यह है कि मुस्लिम संप्रदाय को सभी राजनीतिक दलों ने आज तक टिशू पेपर की भांति इस्तेमाल किया और फेंक दिया। अत: आवश्यकता इस बात की है कि एक मुस्लिम पार्टी की स्थापना हो। वैसे सेक्युलर पार्टियों के लिए यह चिंता का विषय होना चाहिए कि देश का मुसलमान आखिर ऐसा क्यों सोच रहा है। इधर जरनैल सिंह के 'जूता' कांड से मुस्लिम समाज में यह बहस भी शुरू हो गई है कि कांग्रेस पार्टी की निगाहों में उनके 20 प्रतिशत वोटों का महत्व मात्र 2 प्रतिशत सिख वोटों से भी कम है। तो क्या अपनी जायज मांग मनवाने के लिए उसे भी बीते समय में किसी मंत्री या नेता पर जूता फेंकना चाहिए था? कांग्रेस ने एक संप्रदाय विशेष को जिस प्रकार से दूसरे संप्रदाय विशेष की भावनाओं की अवहेलना करके खुश किया है, उससे मुसलमानों में बड़ी बेचैनी है और वे सोच रहे हैं कि जब भारत में धर्म की गंदी राजनीति का ही बोलबाला है तो वे फिर सैक्युलर होकर वोटिंग क्यों करें। उधर, समाजवादी पार्टी से भी मुस्लिम समुदाय का मोहभंग हो गया है क्योंकि उसने बाबरी मस्जिद विध्वंस के हीरो कल्याण सिंह से हाथ मिला लिया है। जहां तक बसपा का सवाल है तो उसके खिलाफ मुसलमानों का कोई तात्कालिक गुस्सा भले न हो मगर वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि मायावती को भाजपा से हाथ मिलाने में चौथाई मिनट भी सोचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। उधर, लालू यादव ने भारतीय रेलवे को भले ही बड़ी ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया हो मगर मुस्लिम संप्रदाय के लिए तो उन्होंने कुछ नहीं किया। उनका किस्सा मुलायम सिंह यादव जैसा ही है, जिनका जब-जब उत्तर प्रदेश में राज रहा, तब-तब वहां मुस्लिम संप्रदाय को बिल्कुल भी घास नहीं डाली गई। देश के मुसलमानों ने 1952 से आज तक जब भी मतदान किया है, बिना यह सोचे किया है कि उनके प्रतिनिधि का धर्म क्या है। उन्होंने तो बस यही देखा है कि उनका प्रतिनिधि काम करने वाला हो और किसी सांप्रदायिक गुट का न हो। उनके मुद्दे सदा से ही यही रहे हैं कि वे धर्म निरपेक्ष वातावरण में रहें और उनके क्षेत्र में स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बिजली, सड़कें और पीने का पानी उपलब्ध हो। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को भी लगभग पांच वर्ष बीत चुके हैं, मुसलमानों का पिछड़ापन सरकार के सामने है मगर किसी भी समस्या का समाधान नहीं हुआ है। हां, इतना जरूर हुआ है कि चंद सरफिरे आतंकवादियों के कारण उस पर आतंकवाद का ठप्पा लग गया है, हालांकि आतंकवाद से जितनी दहशत मुसलमानों में है, उतनी ही शायद किसी और समुदाय में हो। मुसलमान अब सिर्फ मतदाता नहीं बने रहना चाहते, बल्कि राष्ट्र के बहुमुखी विकास में अपनी भागीदारी चाहते हैं। आरक्षण आरक्षण का झुनझुना उनके लिए ज्यादा काम का नहीं है। फ्रेंड्स फॉर एजुकेशन के अनुसार जिस समुदाय में मात्र 32 प्रतिशत पुरुष और 14 प्रतिशत महिलाएं शिक्षित हों वहां आरक्षण की निरर्थकता को आसानी से समझा जा सका है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में मुस्लिम जनसंख्या लगभग 15 प्रतिशत है जबकि महत्वपूर्ण सरकारी कार्यालयों में उनकी हाजिरी 2 प्रतिशत ही दर्ज हो पाती है। पिछले चुनाव-परिणामों से यह स्पष्ट हो गया है कि पुराने नेतृत्व और भावनात्मक मुद्दों को मुसलमानों ने नकार दिया है। कुछ मुस्लिम 'शो ब्वायज' या 'शो गर्ल्ज' विभिन्न राजनीतिक दलों में स्थान अवश्य पा गए हैं मगर ऐसे लोगों को अपनी औकात पता है और वे यह भी जानते हैं कि अपने बूते पर वे किसी को को मुस्लिम वोट दिलाने की स्थिति में नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि मुस्लिम वोट को हिंदू, दलित, जैन या सिख वोट से हट कर नहीं देखना चाहिए क्योंकि मुसलमानों की समस्याएं देश के बाकी समुदायों से भिन्न नहीं हैं। जिस प्रकार सामान्य हिंदू बेरोजगारी, शिक्षा के साधनों की कमी, समाज में आगे बढ़ने के लिए सुविधाओं के अभाव आदि से पीड़ित हैं, वैसे ही मुसलमान भी हैं। ऐसा कहा जाता है कि भारतीय मुसलमान एक मुश्त वोट देते हैं। यदि यह बात सही होती तो एक ही क्षेत्र में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बीएसपी आदि जैसी तीन-चार पार्टियों को मुसलमानों के वोट कैसे मिलते? केरल में तो मुस्लिम लीग मौजूद है, उत्तर प्रदेश में उलेमा काउंसिल है और हैदराबाद में इत्तेहाद-उल-मुस्लेमीन है। अगर मुसलमान वोट देने में सांप्रदायिक भाव से प्रेरित होते तो उनके सारे या ज्यादातर वोट इन पार्टियों को ही जाते। यहां यह याद दिलाना गलत नहीं होगा कि एक मुश्त वोटिंग की प्रवृत्ति मुसलमानों से अधिक गैर मुस्लिम समुदायों में देखने को मिलती है, और अपने क्षेत्र में यदि बीजेपी से कोई मुसलमान खड़ा हो जाए तो भी मुस्लिम मतदाता उसे मात्र धर्म के आधार पर वोट न देकर किसी गैर मुस्लिम सेक्युलर उम्मीदवार को विजयी बना देते हैं।