बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई... यह बाप के जमाने का गाना है, आपके जमाने का नहीं। इतनी महंगाई के बावजूद कोई यह गाना गाता नजर नहीं आता, क्योंकि लोग परेशान नहीं है। इससे इनकार नहीं कि महंगाई तेज़ी से बढ़ रही है, लेकिन यह भी सच है कि इसका असर लोगों पर वैसा नहीं हो रहा है, जैसा पहले हुआ करता था।कुछ समय पहले हुए लोकसभा चुनाव और फिर बाद में उपचुनावों के दौरान कांग्रेस ने जबरदस्त जीत दर्ज की। कई हलकों में हैरत जताई गई कि इतनी कमरतोड़ महंगाई के बावजूद जनता ने सत्ताधारी कांग्रेस को कैसे जिता दिया। एक प्याज के मसले पर बीजेपी की सरकार गिराने वाली जनता आज तमाम फूड प्रॉडक्टस की महंगाई से नजरें क्यों फेरे हुए है? इन हालात पर बीजेपी के एक नेता ने तो कटाक्ष करते हुए कहा कि शायद जनता पर महंगाई का असर नहीं हो रहा है। जो बात उस नेता ने कटाक्ष के तौर पर कही थी, वह सचाई थी। आइए देखते हैं - कहां है महंगाई। सुबह उठते ही चाय पीते वक्त दूध की महंगाई याद आती है। कितना दाम बढ़ा है दूध का, साल भर में एक या दो रुपया। हर किसी को पता है कि आज के ज़माने में एक या दो रुपये की क्या औकात है। बर्गर और पिज्जा खाते वक्त इससे कहीं ज्यादा रकम तो टैक्स के तौर पर ले ली जाती है। दूध जैसा उत्तम आहार प्रोसेस्ड होकर आपके पास समय पर पहुंचता है, इसके लिए एक-दो रुपये की रकम भी क्या ज्यादा है? चीनी की महंगाई है, क्योंकि किसान अब अपने गन्ने की ज्यादा कीमत मांग रहे हैं, जिसे चीनी मिलें देने को तैयार नहीं हैं। किसान आखिर क्यों न मांगें अपनी फसल की पर्याप्त कीमत? वे भी तो बाज़ार में खड़े होते हैं। डिमांड बढ़ेगी, तो वे उत्पादन का दाम भी बढ़ाएंगे। आप भी बाज़ार में चीनी खरीदने जाते हैं तो दाम डबल होने की बात सुनकर खरीदना छोड़ नहीं देते। अर्थशास्त्र की पुरानी थिअरी है, मांग बढ़ेगी तो दाम बढ़ेंगे। जहां तक दालों का सवाल है, पीली मटर की दाल 26 रुपये किलो बिक रही है, लेकिन उसे बेचने के लिए सरकार को विज्ञापन देना पड़ रहा है। फिर भी खास डिमांड नहीं है। माना कि यह चुनिंदा स्टोर्स में उपलब्ध है। चने की दाल तो हर दुकान में मिल रही है। केंद्रीय भंडार में यह 34 रुपये किलो उपलब्ध है। क्या तड़के वाली चने की दाल किसी हाल में अरहर की दाल से कम स्वादिष्ट होती है? इसी तरह राजमा भी 42 रुपये है। केंद्रीय भंडार में कई दालों के दाम बाज़ार के मुकाबले 8 से 10 रुपये कम हैं। पर क्या केंद्रीय भंडार में लंबी कतारें लगी हैं? आटा वहां बाजार के मुकाबले 50 रुपये सस्ता मिल रहा है। क्या लोग आटा खरीदने के लिए दंगे जैसी स्थिति हो गई? सवाल डिमांड और सप्लाई का भी है। अरहर की दाल की सप्लाई कम है, इसमें सरकार भी कुछ नहीं कर सकती है। उसने मामूली सस्ती दालें बेचने की कोशिश की, लेकिन आखिरकार मान लिया कि यह इतना आसान काम नहीं है। सच तो यह है कि सस्ती चीजें खरीदने की चाह अब शायद ही कहीं है। नैनो जैसी कार ने बाजार में अपनी पहचान लखटकिया कार के तौर पर बनाई। इस कार के सबसे कम दाम वाले मॉडल की सबसे कम बुकिंग हुई। सबसे ज्यादा बुकिंग सबसे महंगे वाले माडल की हुई। मारुति 800 की पूछ कम होती जा रही है। अब ज्यादा महंगी आल्टो मारुति की शान है। तो फिर किसे चाहिए सस्ती चीज़ें?सब्जियों की महंगाई पर अब भी कई लोग आंसू बहा रहे हैं। वे भिंडी, परवल आदि की महंगाई देख रहे हैं। जनाब, कोई इन्हें बताए कि ये सीजनल सब्जियां नहीं हैं। सीज़नल सब्जियां सस्ती मिल रही हैं। आलू-प्याज की कीमतें भी धीरे-धीरे कम हो रही हैं। टमाटर की खेती खराब हो गई है तो क्या किया जा सकता है? अब इसकी भी कीमत सुधर रही है। मौसम पर ठंड का असर बढ़ते-बढ़ते तमाम सब्जियों के दाम कम हो जाएंगे। यह हर साल की कहानी है। जाड़े से पहले महंगी सब्जियों का रोना रोना, फिर जाड़े में उन्हीं सीज़नल और सस्ती सब्जियां खाने में दस नखरे सामने आएंगे। कई लोग यह कह सकते हैं कि ऊपर लिखी गई तमाम बातें खाए-पीए-अघाए लोगों पर सूट करती है। इनमें कहीं भी उस आदमी का ख्याल नहीं रखा गया जो गरीब है। वह आदमी जो हर दिन कुआं खोदता है, पानी पीता है। तो यहां बता दें कि जिन्हें आप गरीब समझते हैं, वे अमीर तो नहीं हो गए हैं, पर इतने भी गरीब नहीं हैं जितना उन्हें समझा जाता है। भिखारियों तक की पड़ताल की गई तो वे महीने में हज़ारों कमाने वाले निकले। आपके घर काम करने वाली बाई भी इतने पैसे कमा रही है कि वह अपने बच्चे को सामान्य पब्लिक स्कूल भेज रही है। उसका पति रिक्शा चला रहा है तो वह ग्राहकों से यह नहीं कहता कि जो किराया समझ में आए, दे दीजिए। उसका किराया अब आपको चुभता होगा। घर के सामने जो सब्जी बेच रहा है, उसकी सब्जी और थोक मंडी की सब्जी के रेट में अंतर पता कीजिएगा। जो फर्क है, वह सब्जी वाले का घर चलाने के लिए कम नहीं है। वह मोबाइल यूं ही नहीं मेंटेन कर रहा है और शायद आपके पास सस्ता हैंडसेट हो, उसके पास यकीनन नहीं होगा। इलेक्ट्रिशन और प्लंबर बुलाकर देख लीजिए, उनके रेट सुनकर आपको लगेगा कि बिजली-पानी के कनेक्शन ठीक करना आदमी को खुद आना चाहिए। तो बुरा लगे या भला, ये लोग जब चाहे महंगाई का मुकाबला कर सकते हैं। दिक्कत खाए-पीए-अघाए लोगों के लिए है। हमारे बीच महंगाई इस वजह से भी है कि सब्जी वाले, ग्रोसरी के खुदरा विक्रेता अब दबे-कुचले नहीं। थोक और खुदरा विक्रेताओं के दाम के अंतर की कीमत पर वे आपकी ही जीवन शैली को कॉपी करने में लगे हैं। यानी महंगाई बढ़ी है तो इसकी वजह उनका उठता जीवन स्तर भी है। इसमें कोई बुराई नहीं।
Thursday, January 21, 2010
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