Sunday, January 10, 2010

संसद के शीतकालीन सत्र ने महंगाई के मुद्दे पर जनता को काफी निराश किया

संसद के शीतकालीन सत्र ने महंगाई के मुद्दे पर जनता को काफी निराश किया है। हालांकि महीना भर चले शीतकालीन सत्र दौरान संसद में महंगाई का मुद्दा, खासतौर पर खाने-पीने की चीजों की महंगाई का मसला चार बार उठाया गया। दो बार दोनों सदनों में इस पर बाकायदा बहस भी हुई। फिर भी इसमें शक की गुंजाइश नहीं है कि महंगाई के मामले में संसद ने लोगों को निराश ही किया है। संसद से जनता इस तरह मायूस हो, हमारे लोकतंत्र की सेहत के लिए यह अच्छा लक्षण नहीं है। जनता की निराशा की सबसे बड़ी वजह तो यही थी कि संसद के सत्र के दौरान भी खाने-पीने की चीजों की कीमतों में तेज बढ़ोतरी होती रही। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, शीतकालीन सत्र की शुरुआत 7 नवंबर को खत्म हुए सप्ताह के जिन आंकड़ों के साथ हुई थी, उनमें खाने-पीने की वस्तुओं में महंगाई 14.55 फीसदी की दर दिखा रही थी। लेकिन महीने भर बाद जब यह सत्र खत्म हुआ, तो 5 दिसंबर को समाप्त हुए सप्ताह में महंगाई की दर पांच फीसदी से भी ज्यादा ऊपर चढ़कर 19.95 फीसदी तक पहुंच चुकी थी। यानी संसद में महंगाई पर चर्चा का नतीजा उलटा निकला। जैसे-जैसे संसद में बहस हुई, वैसे-वैसे महंगाई बढ़ती ही गई। जनता की निराशा की वजह सिर्फ यही नहीं है कि संसद में चर्चाओं के बावजूद महंगाई तेजी से बढ़ती रही। निराशा की वजह यह भी नहीं थी कि बार-बार यह मुद्दा उठने के
बावजूद सरकार कभी सूखे-बाढ़ का या खाद्यान्न पैदा करने वाले किसानों को पहले से ज्यादा समर्थन मूल्य दिए जाने का बहाना बनाती रही। कभी वह राज्य सरकारों द्वारा कालाबाजारी आदि से निपटने के लिए कारगर कदम नहीं उठाने को कोसती रही और खुद, अगली फसल आने पर महंगाई की दर नीचे आ जाने का जनता को दिलासा देने के सिवा कुछ करने के लिए तैयार ही नहीं हुई। जनता की निराशा की एक महत्वपूर्ण वजह यह भी थी कि सत्ता पक्ष ही नहीं आमतौर पर विपक्ष भी, इस मामले में खाना-पूरी ही कर रहा था। यह इसके बावजूद था कि अन्य वस्तुओं की महंगाई की तुलना में खाने-पीने की चीजों की महंगाई चौंकाने की हद तक थी। बेशक, इस अर्थ में यह अंतर कोई नया नहीं है कि जब से भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मंदी का असर दिखाई देना शुरू हुआ है, तभी से आम इन्फ्लेशन की दर तेजी से गिरी थी। यह महीनों तक शून्य से नीचे भी बनी रही, जबकि खाने-पीने की चीजों में महंगाई की दर इस पूरे दौर में न सिर्फ ऊंची रही है बल्कि उसमें बढ़त होती रही है। फिर भी यह सच हमारी राजनीति की मुख्यधारा से और ज्यादातर सांसदों की नजरों से छुपा ही रहा है कि फूड इन्फ्लेशन के आम इन्फ्लेशन से इतना ऊपर चढ़ जाने का सीधा सा अर्थ देश की गरीब जनता की कमाई पर सीधे-सीधे डाका डालना है। सचाई यह है कि जो लोग मेहनत-मजदूरी की कमाई से अपना पेट भरते हैं, उन्हें अपनी मामूली आमदनी का सबसे बड़ा हिस्सा पेट भरने में ही खर्च करना पड़ रहा है। फूड इन्फ्लेशन की ऊंची दर जहां एक ओर ऐसे लोगों की क्रय शक्ति में भारी गिरावट को दिखाती है, वहीं आम इन्फ्लेशन की निचली दर इसका इशारा करती है कि उनकी मजदूरी नहीं बढ़ रही है। मेहनत-मजदूरी करने वाले तबके पर दोहरी मार पड़ रही है। ऐसे तबके के पास जो बेचने को है यानी उनका श्रम, उसके दाम या तो घट रहे हैं या जहां के तहां बने हुए हैं, पर दूसरी ओर वह जो खरीदते हैं यानी मुख्यत: खाने-पीने की चीजें, उनके दाम तेजी से बढ़ रहे हैं। मेहनत-मजदूरी करने वालों की जिंदगी के लिए ऐसी महंगाई कितनी कष्टकर है, इसके अहसास की कोई गूंज संसद में नहीं सुनाई दी। यह संयोग ही नहीं था कि काफी शोर-शराबे के बाद 26 नवंबर को जब लोकसभा में इस मुद्दे पर चर्चा की बारी आई, तो सदन में कुल 26 सदस्य उपस्थित थे। यह उपस्थिति निचले सदन की कुल सदस्य संख्या के पांच परसेंट से भी कम थी। बाद में राज्यसभा में इसी मुद्दे पर हुई चर्चा में भी उपस्थिति ऐसी ही थी। यूं तो इस पर हुई चीख-पुकार के बाद सत्र के आखिर में इसी मुद्दे पर दोबारा हुई चर्चा में उपस्थिति कहीं बेहतर रही, पर इस बहस में हिस्सा लेने वाले अनेक सांसदों से एक अंग्रेजी दैनिक की बातचीत में यह सचाई सामने आई कि महंगाई पर चिंता जताने वालों में से भी अनेक को वास्तव में इस महंगाई का न तो कोई प्रत्यक्ष अनुभव है और ठीक-ठीक कोई अनुमान। पर इसमें अचरज की बात भी क्या है। मौजूदा लोकसभा में 300 से ज्यादा करोड़पति सांसद चुनकर आए हैं। यानी करीब 60 फीसदी। यह संख्या चौदहवीं लोकसभा के मुकाबले दोगुनी है। पंद्रहवीं लोकसभा में सिर्फ 21 सदस्य हैं, जिन्होंने चुनाव के समय अपनी घोषणा में अपनी परिसंपत्तियां 10 लाख रुपये या उससे कम बताई हैं। दिलचस्प है कि पिछड़े माने जाने वाले राज्यों में से उत्तर प्रदेश से चुने गए लोकसभा सदस्यों की औसत संपत्ति चार करोड़ रुपये बैठती है। राजस्थान के सदस्यों की तीन करोड़ रुपये, मध्य प्रदेश के सदस्यों की दो करोड़ रुपये और बिहार के सदस्यों की एक करोड़ रुपये। सत्ताधारी कांग्रेस के लोकसभा सदस्यों की औसत परिसंपत्ति चौदहवीं लोकसभा के चुनाव के समय के तीन करोड़ 40 लाख के आंकड़े से दोगुनी हो गई और पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव के समय छह करोड़ 80 लाख रुपये पर पहुंच गई। सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीजेपी के सांसदों की औसत प्रॉपर्टी एक करोड़ 20 लाख रुपये से बढ़कर तीन करोड़ 60 लाख रुपये के आंकड़े तक पहुंच गई, यानी तीन गुनी हो गई। अपनी सारी नेकनीयती के बावजूद 60 फीसदी करोड़पतियों वाली लोकसभा से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह इसका कोई अनुमान लगा सके कि करीब 20 प्रतिशत फूड इन्फ्लेशन के दौर में 20 रुपये रोजाना कमाने वाली देश की 78 प्रतिशत आबादी की गुजर-बसर कैसे होती होगी। मौजूदा सरकार में लोकसभा से आए मंत्रियों में 47 करोड़पति हैं और उनकी औसत प्रॉपर्टी 7 करोड़ 73 लाख की बैठती है। यानी लोकसभा सदस्यों की औसत प्रॉपर्टी से भी डेढ़ गुना ज्यादा। जब हमारे प्रतिनिधि इतने खास और अमीर हों और आम जनता बेहद लाचार, तो दोनों का साथ भला कैसे निभ सकता है?

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