नए साल से की जाने वाली अपेक्षाएं और नए साल के उपलक्ष्य में किए जाने वाले संकल्
प अक्सर पूरे नहीं होते, फिर भी इन अपेक्षाओं-संकल्पों की परंपरा चल रही है।
ऐसा ही एक संकल्प देश से गरीबी हटाने का है। हर सरकार और हर वित्त मंत्री हर साल गरीबी कम होने के दावे करता है और आने वाले साल में गरीबी और कम करने का संकल्प भी जताता है। इस संदर्भ में सबसे नया संकल्प यह है कि आगामी 7 साल में देश को गरीबी से मुक्त कर दिया जाएगा। सवाल यह है कि इस मुक्ति का मतलब क्या है? क्या इसका मतलब यह है कि हर हाथ को काम मिल जाएगा और कोई भूखा नहीं सोएगा, कोई नंगा नहीं रहेगा? अथवा इसका मतलब यह है कि देश में कोई किसान आत्महत्या के लिए विवश नहीं होगा या कोई बच्चा कुपोषण से नहीं मरेगा? अथवा क्या इसका अर्थ यह होगा कि देश के सब बच्चे स्कूलों में पढ़ने के लिए जाएंगे, दोपहर में मिलने वाले मुफ्त भोजन के लिए नहीं? ऐसे ढेरों प्रश्नों का उत्तर दुर्भाग्य से 'हां' नहीं है। फिर भी यह कल्पना ही अपने आप में सुखद है कि अब हमें सिर्फ सात साल तक गरीबी का शाप झेलना है। लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? जरा देश में गरीबी के आंकड़ों पर एक नजर डालें। सन 2004-05 में देश की 28 प्रतिशत आबादी गरीबी की रेखा के नीचे का जीवन जी रही थी। दावा है कि वर्ष 2008 में यह संख्या घटकर 23 प्रतिशत रह गई। यानी चार साल में पांच प्रतिशत की कमी। अच्छा लगता है यह आंकड़ा। यह अहसास भी अच्छा लगता है कि देश में गरीबों की संख्या कम हो रही है। 1973-74 में यह संख्या 55 प्रतिशत थी। 55 से 23 प्रतिशत तक की यह यात्रा हमने 35 साल में पूरी की है। अर्थात औसतन एक प्रतिशत गरीब देश में प्रतिवर्ष कम हुए हैं। पता नहीं किस आधार पर यह दावा किया जा रहा है, लेकिन सरकार का कहना है कि 2015 तक देश में कोई भी व्यक्ति गरीबी की रेखा से नीचे का जीवन नहीं जीएगा। इसका मतलब यह हुआ कि गरीबी कम करने की रफ्तार हम कम से कम तीन गुनी कर देंगे। यह कैसे होगा, पता नहीं। होगा या भी नहीं, यह भी नहीं कहा जा सकता। लेकिन फिर भी इस खुशफहमी का अच्छा लगना स्वाभाविक है। बहरहाल, इस संदर्भ में दो नजरियों से विचार किया जाना जरूरी है: पहला तो यह कि गरीबी की रेखा से ऊपर आने का मतलब क्या होता है और दूसरे यह कि सचमुच की गरीबी और गरीबी की सरकारी परिभाषा में क्या रिश्ता है। गरीबी की रेखा का निर्णय अलग-अलग देशों में अलग-अलग पैमानों पर तो होता ही है, इसके लिए तरीके भी अलग-अलग अपनाए जाते हैं। कभी सरकारें प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की आय को आधार बनाती हैं, तो कभी व्यय करने की क्षमता को। कभी इसे पौष्टिकता के परिमाण से जोड़ दिया जाता है और कभी जीवन की आवश्यकताओं के संदर्भां से। इसके अलावा औसत का खेल तो होता ही है, जो अक्सर वास्तविकता को छिपाने के काम आता है। इसी का नतीजा है कि देश में गरीबों की संख्या और गरीबी की मात्रा के लेकर अक्सर विवाद होता रहा है। अब सरकार ने इसके लिए एक 13 सूत्री फॉर्म्युला बनाया है, लेकिन केंद्र और राज्यों की सरकारें इस फॉर्म्युले को लेकर अभी तक एकमत नहीं हो सकी हैं। अक्सर राज्यों में यह संख्या बढ़ाकर दिखाने की प्रवृत्ति होती है, ताकि इस संदर्भ में केंदीय सहायता की मात्रा बढ़ सके। अक्सर केंद्र यह संख्या कम बताना चाहता है, ताकि उपलब्धियां का पलड़ा भारी दिखाया जा सके और राज्यों को इस मद में पैसा भी कम देना पडे़। पिछले चार दशकों के गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का एक नतीजा यह भी है कि गरीबों की संख्या भले ही कम आंकी जा रही हो, गरीबी का असर लगातार बढ़ रहा है। हमारी राजनीति को यह विरोधाभास भले ही दिखाई न देता हो, लेकिन कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या, बाल मजदूरी का लगातार अधिक विकृत होता चेहरा, किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला न रुकना, रोजीरोटी के लिए मजदूरों का एक से दूसरे राज्य में पलायन, ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों का स्कूल न जा पाना या दो चार साल बाद ही स्कूल छोड़ने के लिए विवश होना और भूखे पेट सोने वाले भारतीयों के बारे में यूनेस्को द्वारा जारी आंकडे़ आदि आंख में उंगली डालकर हमें बता रहे हैं कि कुछ क्षेत्रों में विकास के प्रभावकारी दावों के बावजूद असंतुलित विकास की हमारी कहानी बहुत लंबी है। गरीबी इसी असंतुलन के परिणाम और प्रमाण के रूप में हमारे सामने खड़ी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ग्रामीण रोजगार योजना, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, रोजगार वृद्धि के प्रयासों आदि से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वालों का जीवन बेहतर बनाने के रास्ते खुले हैं, लेकिन राजनीति के ठेकेदारों और नौकरशाहों के तौर तरीकों ने इन रास्तों पर कितने अवरोध खड़े कर दिए हैं, उनकी ओर हम देखकर भी देखना नहीं चाहते। अब आगामी सात वर्षों में देश को गरीबी से निजात बनाने की योजनाएं बन रही हैं। मन तो 'आमीन' कहने को करता है, लेकिन शासन-प्रशासन और समाज को चलाने का दम भरने वाले ठेकेदारों के तौर-तरीके सिर्फ आशंकाओं को जन्म दे रहे हैं। सरकार का कहना है कि अगले कुछ वर्षों में देश के प्रति परिवार की औसत आय तीन- चार हजार रुपये वाषिर्क हो जाएगी और यह आंकड़ा उसे गरीबी की रेखा से ऊपर उठा देगा। लेकिन सवाल इस काल्पनिक रेखा के ऊपर-नीचे होने का नहीं है, बल्कि जीवन स्तर में वास्तविक सुधार का है। सभी को काम मिले, सभी को रोटी-कपड़ा मिले, सब शिक्षित हों, सबके सिर पर छत हो- गरीबी से उबरने का मानक यह होना चाहिए। भले ही पिछले चार दशक की कहानी यह बता रही हो कि देश में गरीबी एक प्रतिशत वार्षिक की दर से कम हुई है, पर गरीबों की दशा में वास्तव में कोई सुधार शायद ही हुआ हो। इसलिए शर्मनाक है यह प्रतिशत और खतरनाक है इस प्रक्रिया से पनप रही विषमता। शर्म और खतरे के दोहरे अहसास को समझकर ही समृद्ध भारत की कल्पना की जा सकती है। गरीबी का अभिशाप भी तभी मिटेगा।
हर व्यक्ति दूसरे पर प्रभाव जमाना चाहता है। वह चाहता है कि उसे लोगों की सराहना मिले
। हर कोई लोकप्रिय होना चाहता है। यह इच्छा ही लोगों के व्यवहार को नियंत्रित करती है। बहुत से लोग लोकप्रिय होने या प्रशंसा बटोरने के लिए भी सदाचरण करते हैं। वे भलाई करते हैं, मीठी बोली बोलते हैं, हमेशा हंसते रहते हैं। लेकिन प्रशंसा हासिल करने के चक्कर में वे कई बार समझौते करते हैं और अपने मन के विपरीत काम करते रहते हैं। जो लोग दूसरों को नाराज करने का साहस नहीं रखते, वे जीवन में कोई जोखिम भी नहीं ले पाते। उन्हें विरोध से डर लगने लगता है। वे ऐसा कोई कदम उठाना ही नहीं चाहते, जिस पर किसी को आपत्ति हो। इसलिए ऐसे लोग लोकप्रिय होने के बावजूद एक सीमित दायरे में कैद हो कर रह जाते हैं। समाज में वे पसंद जरूर किए जाते हैं, लेकिन वे समाज के लिए उपयोगी नहीं रह जाते। समाज के लिए उपयोगी तो वे होते हैं जो विरोध की परवाह नहीं करते और अलोकप्रिय तथा अलग-थलग पड़ जाने का खतरा उठाकर भी बड़े फैसले करते हैं और अपना रास्ता खुद बनाते हैं।
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