Tuesday, May 12, 2009

सरकारी तंत्र का फंक्शन, उसके फंक्शनरी और फंड। अभी तक इन तीनों पर सिर्फ नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का ही कब्जा रहा

दुनिया के लगभग सभी लोकतांत्रिक देशों में अब यह महसूस किया जाने लगा है कि सिर्फ वोट देकर सरकार चुनने की व्यवस्था से प्रशासन में जनता की पूरी भागीदारी नहीं होती। इसलिए अनेक देशों में अब पार्टिसिपेटरी गवर्नंस को बढ़ावा देने वाले मॉडल विकसित किए जा रहे हैं। इनके बहुत ही उत्साहवर्द्धक नतीजे सामने आ रहे हैं। अमेरिका में हर मुहल्ले की अपनी स्थानीय असेंबली होती है। वहां एक फुटपाथ भी बनना हो तो म्युनिसिपैलिटी हरेक बाशिंदे से उसकी राय पूछती है। स्थानीय नागरिक निश्चित तारीख को टाउन हॉल में उपस्थित होते हैं और ऐसी योजनाओं पर अपना फैसला सुनाते हैं। आपने वॉलमार्ट का नाम सुना होगा। इस प्रसिद्ध रिटेल चेन को ओरेगांव में अपना स्टोर खोलना था। इस पर ओरेगांव के नागरिक टाउन हॉल में इकट्ठा हुए। विचार-विमर्श के दौरान उन्होंने पाया कि इससे इलाके की छोटी-छोटी दुकानें बंद हो जाएंगी, जिन्हें ममियां और पापा अपने खाली समय में चलाते हैं। इससे बेरोजगारी फैलेगी। नागरिकों के फैसले के बाद वॉलमार्ट को वहां स्टोर खोलने से मना कर दिया गया। क्या अपने यहां सेज या शॉपिंग मॉल के लिए जमीन मुहैया कराते समय प्रशासन, स्थानीय जमीन अधिग्रहण करने के अलावा जनता से किसी भी तरह की कोई बात करता है? इसी तरह ब्राजील का एक शहर है पोर्तो अलेग्रे। इस शहर में 1989 से स्थानीय बजट बनाते समय वहां के नागरिकों को भी सहभागी बनाया जा रहा है। पंद्रह लाख की आबादी वाले इस शहर में हर साल लगभग 20 करोड़ डॉलर की रकम जनता अपनी इच्छा से खर्च करती है, जिसका प्रावधान मुख्य बजट में अलग से किया जाता है। शहर के विभिन्न इलाकों, आय वर्गों, पेशों और आयु वर्गों के प्रतिनिधि मिल कर यह तय करते हैं कि इस बार शहर के किस हिस्से में किस चीज का विकास किया जाना चाहिए। सर्वेक्षणों में इस शहर के लोगों की क्वॉलिटी ऑफ लाइफ सबसे उम्दा पाई गई है। इस पाटिर्सिपेटरी बजटिंग का नतीजा यह भी हुआ है कि वहां शत प्रतिशत टैक्स कलेक्शन होता है और शत प्रतिशत वोटिंग होती है। स्विटजरलैंड में तो संवैधानिक व्यवस्था ही ऐसी है कि पचास हजार मतदाता मिल कर अपने हस्ताक्षर द्वारा वहां की सरकार द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को चुनौती दे सकते हैं और उस पर राष्ट्रीय स्तर पर जनमत संग्रह करा सकते हैं। क्या भारत में आबादी का कितना भी बड़ा हिस्सा किसी कानून को बदलवाने के लिए कोई प्रक्रिया शुरू कर सकता है? भारतीय शासन व्यवस्था में तीन ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर वोटर या जनता का कोई वश नहीं चलता और जिनमें दखल देने की जरूरत स्पष्ट रूप से महसूस की जाती है। ये तीनों हैं - सरकारी तंत्र का फंक्शन, उसके फंक्शनरी और फंड। अभी तक इन तीनों पर सिर्फ नेताओं और सरकारी कर्मचारियों का ही कब्जा रहा है। लेकिन अब देश में सहभागी और स्वराज जैसे कुछ अभियान चलाए जा रहे हैं जो कहते हैं कि इन तीनों में यथासंभव जनता को भी भागीदार बनाया जाए। यह काम कैसे किया जाएगा- इसके लिए कई मॉडल हो सकते हैं। हमारे और आपके मॉडल अलग-अलग भी हो सकते हैं, लेकिन सहभागिता जरूरी है। मान लीजिए कि आपके इलाके के स्कूल का कोई शिक्षक (फंक्शनरी) बहुत गैरहाजिर रहता है, तो इलाके के लोग क्या उसकी तनख्वाह रोक सकते हैं? यदि इलाके का थानेदार भ्रष्ट है, तो क्या स्थानीय नागरिक उसका तबादला करवा सकते हैं? आपके क्षेत्र में पानी की सप्लाई (फंक्शन) ठीक नहीं है, तो क्या आप सप्लाई लाने वाले पाइप की मोटाई बढ़वा सकते हैं? या पानी की बड़ी टंकी बनवा सकते हैं? क्या शराब की दुकान का लाइसेंस क्षेत्र के लोगों से पूछने के बाद जारी किया जाता है? या मोहल्ले की सड़क की मरम्मत पर किए जाने वाले फंड का फैसला और उसके खर्च की जांच स्थानीय लोगों से कराई जाती है? यदि ऐसा नहीं होता तो यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है। लोकतंत्र का मतलब सिर्फ म्यूनिसिपल/ पंचायत, विधानसभा या लोकसभा के चुनाव में वोट देना भर नहीं हो सकता। बीते छह दशकों का अनुभव यही बताता है कि वोट देने के बाद सिविक गवर्नंस या विकास की योजनाओं में आम नागरिकों की कोई भी भूमिका नहीं रह जाती। हमारे ही क्षेत्र के प्रशासन और विकास के मामले में हम कुछ भी नहीं, पर सरकार द्वारा नियुक्त कर्मचारी सारे अधिकार रखता है, यहां तक कि हमारी आवाज या शिकायत सुनना- न सुनना या उसे मानना- नहीं मानना भी उसके अपने विवेक पर निर्भर करता है। वोट डालते ही हमारे हाथ से सारी सत्ता निकल कर चंद दूसरे लोगों के हाथों में पहुंच जाती है, जिसका प्रयोग वे अपनी इच्छा से या निरंकुश तरीके से करने को स्वतंत्र होते हैं। यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है। इससे नागरिकों को वास्तविक अधिकार नहीं मिल पाए हैं। सहभागी नागरिकों के सशक्तीकरण के लिए चलाया जाने वाला अभियान है। इस आम चुनाव के दौरान भी यह बात खूब जोर-शोर से उठी है कि उन्हीं प्रत्याशियों या पार्टियों को वोट दें जो अपने कार्यकाल में जन सहभागिता को मजबूत बनाने का वादा करें। यदि अपने देश में डेमोक्रेसी को सचमुच सफल बनाना है, तो नागरिकों को निर्णय और विकास की योजनाओं में सहभागी बनाना होगा। कुछ लोगों को यह अवधारणा अभी अपरिपक्व और भ्रामक लगती है। कुछ लोग पूछ भी रहे हैं कि स्थानीय लोगों की राय से शासन कैसे चल सकता है? मोहल्ले के आधे लोग कहेंगे कि पूरब वाली गली की मरम्मत करो, दूसरे आधे कहेंगे कि पश्चिम वाली गली की मरम्मत करो। इसके अलावा पार्षद या विधायक स्थानीय लोगों की बात सरकार तक पहुंचाने के लिए ही तो चुने जाते हैं, उन्हें प्रतिनिधि चुनने का क्या फायदा? इस तरह के प्रश्न इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि हम पार्टिसिपेटरी गवर्नंस जैसे किसी सिस्टम के आदी नहीं हैं। लेकिन क्या इलाके के बुजुर्गों की कोई कमिटी बारी-बारी से थाने में बैठकर पुलिस के कामकाज और व्यवहार पर निगरानी रख सकती है? क्या स्कूली बच्चों की मांएं एक-एक दिन ड्यूटी बांध कर मिड डे मील की निगरानी कर सकती हैं? क्या ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि माताओं की इस कमिटी की सलाह गंभीरता से सुनी जाए और उनकी शिकायतों पर अनिवार्य रूप से कार्रवाई की जाए। क्षेत्र के विकास के लिए जारी फंड के बारे में क्या नागरिकों से पूछा जा सकता है कि पहले मंदिर में लाइट लगाई जाए या स्कूल की मरम्मत कराई जाए। पहले पार्क बने या अस्पताल? देश में ऐसे कुछ मॉडल बेहद सफलतापूर्वक काम कर रहे हैं।

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