वहां आवाजें नहीं थीं…चीखें थीं...आहें थीं...कराहटें थीं। कोई गिरा तो उसके ऊपर से भागते हुए 30-40 लोग निकल गए...किसी के जूते की नोक उसकी आंख में घुसी और वहां से खून की एक धार निकली जो हवा में उछलकर पास ही में पड़े एक और व्यक्ति के मुंह पर पड़ी...इसका सिर लगभग दो टुकड़े हो चुका था...शरीर से खून खत्म हो चुका था...लेकिन वह दर्द से नहीं प्यास से मर रहा था...मुंह पर पड़े खून को उसने पानी समझकर पीया और फौरन मर गया...सोच ही नहीं पाया कि पानी का स्वाद खून जैसा क्यों है...वहीं पास में एक और व्यक्ति हाथ में अपनी टांग लिए घिसट रहा था...घिसटते-घिसटते वह सुरक्षित जगह की तलाश में एक छोटे से टीले पर पहुंचा...उसने अपने चारों ओर देखा...दूर-दूर तक उसे अपने जैसे ही लोग मिले...आधे-अधूरे, कटे-फटे...कहीं सिर पड़े थे, ताजा खून की गर्मी से थरथराते हुए...कहीं हाथ, पांव, बाजू...कुछ लोग जो पूरे नजर आ रहे थे, उनकी आंतें बाहर निकल आई थीं और वे किसी और के पांव में उलझकर धागे की तरह दूर तक फैल गई थीं...वहां आवाजें नहीं थीं...चीखें थीं...आहें थीं...कराहटें थीं...
किसी फिल्म का सीन सरीखा लगता है...मैं सोच रहा था कि इस सीन को कई फिल्मों में डाला जा सकता है। कपड़े और थोड़े बहुत बदलाव के साथ इसका इस्तेमाल कई फिल्मों में किया जा सकता है...इन सभी फिल्मों का नाम शहरों के नाम पर होगा...कुरुक्षेत्र, रोम, जेरूसलम, मक्का-मदीना, अमृतसर...अयोध्या।
अजीब बात है ना...ये सभी शहर किसी न किसी धर्म से जुड़े हैं। किसी न किसी की आस्था का प्रतीक हैं। इन सभी शहरों में लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं...लेकिन सबका अतीत खून-खराबे से भरा पड़ा है...कुछ के प्राचीन इतिहास में इन्सान का खून बहा, तो कुछ के पन्ने मॉडर्न हिस्ट्री में लाल हुए। धर्म और खून में क्या रिश्ता हो सकता है...धर्म तो इन्सान को जोड़ने के लिए है...उसकी सारी शक्ति को जमाकर एक परमशक्ति की ओर ले जाने के लिए है...क्या परमशक्ति की ओर जाने का रास्ता मारकाट से होकर गुजरता है?
अच्छा, यूं सोचिए कि मारकाट न भी हुई हो, तो भी अमरनाथ की कुछ साल पहले की वह यात्रा आपको याद होगी, जब सैकड़ों लोग मारे गए थे। मानसरोवर यात्रा से हर साल कितने ही लोग वापस नहीं लौट पाते। मंदिरों में हर साल भगदड़ की वजह से सैकड़ों जानें जाती हैं। सीरिया और जॉर्डन में मुस्लिम धार्मिक जगहों का यही हाल है। ईसाइयों को पवित्र स्थलों में कुछ सौ साल पहले तक चर्च के नाम पर कत्लेआम हो चुका है। पाकिस्तान की लाल मस्जिद का खून खराब तो आपको याद ही होगा।
मैंने तो कुछ ही मिसालें दी हैं। आप धर्म से जुड़ी दुनिया की जगहों को उठाकर देखिए...वहां कितना रक्तपात हुआ...लोग मारे गए...बच्चे, बूढ़े, औरतें कत्ल कर दिए गए...इन शहरों को याद करने के बाद सोचिए...क्या धर्म के बिना दुनिया बेहतर नहीं होती?
किसी फिल्म का सीन सरीखा लगता है...मैं सोच रहा था कि इस सीन को कई फिल्मों में डाला जा सकता है। कपड़े और थोड़े बहुत बदलाव के साथ इसका इस्तेमाल कई फिल्मों में किया जा सकता है...इन सभी फिल्मों का नाम शहरों के नाम पर होगा...कुरुक्षेत्र, रोम, जेरूसलम, मक्का-मदीना, अमृतसर...अयोध्या।
अजीब बात है ना...ये सभी शहर किसी न किसी धर्म से जुड़े हैं। किसी न किसी की आस्था का प्रतीक हैं। इन सभी शहरों में लोग श्रद्धा से सिर झुकाते हैं...लेकिन सबका अतीत खून-खराबे से भरा पड़ा है...कुछ के प्राचीन इतिहास में इन्सान का खून बहा, तो कुछ के पन्ने मॉडर्न हिस्ट्री में लाल हुए। धर्म और खून में क्या रिश्ता हो सकता है...धर्म तो इन्सान को जोड़ने के लिए है...उसकी सारी शक्ति को जमाकर एक परमशक्ति की ओर ले जाने के लिए है...क्या परमशक्ति की ओर जाने का रास्ता मारकाट से होकर गुजरता है?
अच्छा, यूं सोचिए कि मारकाट न भी हुई हो, तो भी अमरनाथ की कुछ साल पहले की वह यात्रा आपको याद होगी, जब सैकड़ों लोग मारे गए थे। मानसरोवर यात्रा से हर साल कितने ही लोग वापस नहीं लौट पाते। मंदिरों में हर साल भगदड़ की वजह से सैकड़ों जानें जाती हैं। सीरिया और जॉर्डन में मुस्लिम धार्मिक जगहों का यही हाल है। ईसाइयों को पवित्र स्थलों में कुछ सौ साल पहले तक चर्च के नाम पर कत्लेआम हो चुका है। पाकिस्तान की लाल मस्जिद का खून खराब तो आपको याद ही होगा।
मैंने तो कुछ ही मिसालें दी हैं। आप धर्म से जुड़ी दुनिया की जगहों को उठाकर देखिए...वहां कितना रक्तपात हुआ...लोग मारे गए...बच्चे, बूढ़े, औरतें कत्ल कर दिए गए...इन शहरों को याद करने के बाद सोचिए...क्या धर्म के बिना दुनिया बेहतर नहीं होती?
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