Wednesday, April 7, 2010

एक बढ़िया फसल देश में महंगाई पर अंकुश लगा सकती है

देश में खाने-पीने की चीजों की महंगाई से आम जनता काफी परेशान है। नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक खाद्य पदार्थों की महंगाई का सूचकांक 16.35 प्रतिशत पर है। सरकार कह रही है कि इस महंगाई में जल्द ही कमी आ सकती है, क्योंकि रबी की बढ़िया फसल की उम्मीद है। पर सवाल यह है कि क्या एक बढ़िया फसल देश में महंगाई पर अंकुश लगा सकती है? खाद्य पदार्थों की महंगाई का कोई एक कारक नहीं है। भारत में इसके लिए कई कारण जिम्मेदार हैं। जैसे इसका सबसे बड़ा कारण खाद्यान्न के मामले में देश में प्रति हेक्टेयर कम उत्पादन होना है। देश में 14.6 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि है जिससे 10.8 करोड़ टन अनाज का औसत उत्पादन होता है। हमारी तुलना में चीन में मात्र 10 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि है, पर वहां 40 करोड़ टन का औसत उत्पादन होता है। भारत में अनाज उत्पादन कम होने की सबसे अहम वजह मॉनसून की अनिश्चितता है। पिछले साल देश में सूखे की स्थितियां थीं। इस कारण 2008-09 के खाद्यान्न उत्पादन में 1.8 करोड़ टन की कमी आ गई। अनाज उत्पादन कम होने से जमाखोरी और कालाबाजारी भी बढ़ गई और इसके फलस्वरूप मुदास्फीति में भी तेज इजाफा हुआ। साफ है कि देश में कृषि भूमि में और विस्तार नहीं किया जा सकता। ऐसे में बढ़ती मांग से मुकाबला करने का एक ही उपाय है उत्पादकता बढ़ाना। उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृषि में सार्थक निवेश की आवश्यकता है। वॉशिंगटन स्थित अंतरराष्ट्रीय कृषि नीति अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार अगर एक भारतीय की औसत वाषिर्क आय 3.7 प्रतिशत की दर से बढ़ती है तो 2020 तक देश में 3.6 से 6.4 करोड़ टन अनाज की कमी हो सकती है। खाद्यान्न की बढ़ती मांग की पूतिर् के लिए देश में 2010 तक चावल के उत्पादन में 32 प्रतिशत, फलों में 72 प्रतिशत और सब्जियों में 53 प्रतिशत वृद्धि करने की आवश्यकता है। वर्ष 2020 तक इसमें दो गुना बढ़ोतरी की जरूरत होगी। यह भी ध्यान में रखने वाली बात है कि बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ लोगों की खानपान की आदतें भी बदल रही हैं। आज गरीब तबके के लोग उपभोग अधिक कर पा रहे हैं, क्योंकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के जरिए उन्हें नियमित मजदूरी मिल रही है। मध्यमवर्ग के लोगों में दूध, अंडा, मांस, फल और सब्जियों का उपभोग बढ़ रहा है जिससे परोक्ष रूप से खाद्यान्न उत्पादन पर दबाव बढ़ता ही जा रहा है। उत्पादकता में कमी की एक वजह मॉनसून की अनिश्चितता तो है, पर भारतीय कृषि को अब जलवायु परिवर्तन यानी ग्लोबल वॉमिंर्ग के खतरे का सामना करना पड़ रहा है। जैसे-जैसे औसत तापमान में वृद्धि होती है, सूखे और बाढ़ जैसी आपदाएं नियमित रूप से आने लगती हैं। ऐसे में कृषि उत्पादन पर दुष्प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। देश में कभी हरित क्रांति से खाद्यान्न क्षेत्र में काफी क्रांतिकारी बदलाव आए थे। आज उसी तरह की एक और हरित क्रांति की जरूरत है जिसमें गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा, मक्का, दलहनी फसलों, तिलहनों की ऐसी प्रजातियां विकसित की जाएं जिन्हें सूखे इलाकों में कम पानी और कम खाद देने पर भी उगाया जा सके। बायो टेक्नॉलजी और मालेक्युलर बायॉलजी में इतना आगे बढ़े चुके देश में ऐसी प्रजातियां विकसित करना कोई मुश्किल काम नहीं है। ऐसी प्रजातियों के विकास से उत्पादन लागत में कमी आएगी तो उत्पादकता अपने आप बढ़ जाएगी। मौजूदा खाद्यान्न संकट का एक हल प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने बीटी कॉटन का उदाहरण देते हुए जीएम फसलों के रूप में भी सुझाया है। परिषद ने इस बात पर बल दिया है कि सरकार को ऐसी फसलों के लिए एक स्पष्ट नीति तैयार करनी चाहिए। संबंधित संस्थाओं को इन फसलों की परीक्षा खेतों में जाकर करनी चाहिए। साथ ही वातावरण पर इनके प्रभाव और खाद्य सुरक्षा जैसे पहलुओं को जल्द से जल्द सार्वजनिक करना चाहिए। खेतों से मंडी और वहां से उपभोक्ता तक पहुंचने के दौरान खाद्यान्नों और खाद्य पदाथोंर् का काफी नुकसान होता है। एक आकलन के अनुसार इस तरह लगभग 30 प्रतिशत खाद्यान्न बर्बाद हो जाते हैं। इसकी वजह है देश में भंडारण, परिवहन, कोल्ड चेन जैसी बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध न होना। यह बर्बादी भंडारण और सप्लाई चेन में सबसे अधिक है। इस संबंध में कृषि में निवेश एक बड़ा मसला है। हाल में, प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद ने सुझाव दिया है कि उत्पादकता की चुनौतियों का सामना करने के लिए कृषि अनुसंधान और विकास पर व्यय को बढ़ाना पड़ेगा। परिषद के सुझाव के अनुसार वर्तमान में इसे जीडीपी के 0.7 प्रतिशत से बढ़ाकर 1 प्रतिशत करना होगा। पर यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि कृषि में निवेश का मामला अकेले केंद्र अथवा राज्य सरकारों के बूते की बात नहीं है। इसमें निजी और विदेशी, दोनों क्षेत्रों की भागीदारी भी जरूरी है। दुनिया के कई मुल्कों में कृषि बाजारों में ठेके पर खेती जैसे उदारीकरण के मॉडल अपनाए गए हैं, जिसमें निजी और सहकारी क्षेत्र बराबर शामिल हैं। ऐसी ही नीति बनाकर ही भारत में खाद्यान्न उत्पादन, प्रसंस्करण, रिटेल चेन और उपभोक्ताओं के बीच एक मजबूत कड़ी बनानी होगी। पर इस तथ्य की अनदेखी नहीं हो सकती कि खेती के व्यवसाय में घटते माजिर्न, सूखा और बाढ़ का प्रकोप, कृषि उत्पादों के शीघ्र खराब होने की प्रवृत्ति से खेती के लिए पूंजी जुटाने की किसानों की क्षमता में कमी आई है। आज कुछ लोग रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध कर रहे हैं, पर उनकी आंखें खाद्य पदाथोंर् की बढ़ती मुदास्फीति से खुल जानी चाहिए। पोस्ट हार्वेस्ट फार्मिंग को प्राथमिकता क्षेत्र घोषित किए जाने के बावजूद इसमें अपेक्षित पूंजी का निवेश नहीं हुआ। इसलिए कृषि को संकट से उबारने के लिए एक तरफ तो निजी क्षेत्रों को निवेश के लिए बढ़ावा देना होगा तो दूसरी ओर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लाना होगा। तभी किसानों को खुशहाल बनाया जा सकता है। इस बारे में अंतरराष्ट्रीय रिटेल चेन वालमार्ट के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि अगर किसानों के साथ फसल बेचने पर मिलने वाले मूल्य के बारे में पहले से करार हो, तो इससे किसानों की खेती में दिलचस्पी बढ़ती है और वे उसमें निवेश बढ़ाने को प्रेरित होते हैं। ऐसे उपायों से देश खाद्यान्न उत्पादन में पूरी तरह आत्मनिर्भर हो सकता है।

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