Monday, August 2, 2010

रोजमर्रा के कठिन जीवन संघर्ष में जुटे आम लोगों की इस तरह के नाटक या प्रतिनाटक में कोई दिलचस्पी नहीं


महंगाई को लेकर संसद में चल रही बहस एक अंधी गली में फंस गई जान पड़ती है। सरकार इस मुद्दे पर पहले की तरह इस बार भी एक कागजी सफाई देकर अपनी जान छुड़ा लेना चाहती है, जबकि विपक्ष को 10 प्रतिशत से ऊंची महंगाई में फिलहाल सरकार को पानी पिला देने का सुनहरा मौका नजर आ रहा है। उसे लग रहा है कि अगर महंगाई पर वोटिंग हो गई तो तृणमूल कांग्रेस और डीएमके ट्रेजरी बेंच में दिखने के बजाय वोटिंग का बॉयकॉट करना ज्यादा पसंद करेंगी। ऐसे में सरकार या तो गिर जाएगी या घिघियाती हुई नजर आएगी। लेकिन संसद के बाहर रोजमर्रा के कठिन जीवन संघर्ष में जुटे आम लोगों की इस तरह के नाटक या प्रतिनाटक में कोई दिलचस्पी नहीं है। वे अब सरकार से कोई सफाई नहीं कोई दिलासा नहीं, एक साफ ब्लूप्रिंट चाहते हैं कि आने वाले दिनों में वह महंगाई से कैसे निपटने जा रही है। प्रणव मुखर्जी, मोंटेक सिंह अहलूवालिया और शरद पवार के पास इस बारे में कहने के लिए बहुत सारी बातें हैं, जिन्हें वे पिछले कई महीनों से तोते की तरह रटते आ रहे हैं। मॉनसून आने के साथ ही महंगाई कम हो जाएगी, साल के अंत तक यह आठ प्रतिशत और अगले मार्च तक छह प्रतिशत तक आ जाएगी, वगैरह-वगैरह। लेकिन ऐसे मनोवैज्ञानिक उपायों से न लोगों का आटा-दाल सस्ता होता है, न ही उनके बाकी खर्चे कम होते हैं। सचाई यह है कि असेर् बाद भारत को एक साथ डिमांड-साइड और सप्लाई-साइड, दोनों तरह की मुद्रास्फीतियों का सामना करना पड़ रहा है। रोजमर्रा की जरूरत की चीजें- अनाज, दलहन, तिलहन, सब्जियां वगैरह- इसलिए महंगी हैं क्योंकि उनकी आपूर्ति कम है, जबकि कारखानों में बनने वाली चीजें, मैन्युफैक्चर्ड सामान इसलिए महंगे हैं क्योंकि देश का खाता-पीता मध्यवर्ग उन्हें महंगे दामों पर भी खरीदने को तैयार है। भारत की अस्सी प्रतिशत या उससे भी ज्यादा आबादी के लिए यह स्थिति भयंकर है, क्योंकि बाजार में हर चीज उसे पिछले साल से पंदह-बीस प्रतिशत महंगी मिल रही है, जबकि उसकी आमदनी बढ़ने की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं बनी है। विपक्ष इस मुद्दे पर अगर सरकार को घेर लेता है, या यहां तक कि उसे गिरा भी देता है तो इससे किसी को कोई भावनात्मक कष्ट नहीं होगा। लेकिन दुर्भाग्यवश, महंगाई जैसे बुनियादी महत्व के मामलों में इससे किसी को कोई राहत भी नहीं मिलेगी। पिछले कुछ दिनों से लगातार यह देखा जा रहा है कि सरकार जब भी संकट में पड़ती है, उसके तीनों बड़े गैर-कांग्रेस घटकों के मजे हो जाते हैं। आपातकालीन स्थिति में उसे बाहर से समर्थन देने को राजी हुआ कोई दल भी मौके का भरपूर फायदा उठाता है। इससे सरकार तो बची रह जाती है लेकिन सत्तारूढ़ धड़ों के बीच हुई सौदेबाजी की मार अंतत: आम लोगों के ही सिर पड़ती है। ऐसे में अच्छा यही होगा कि विपक्ष कुछ सियासी मोहरे मार लेने के बजाय सरकार को महंगाई पर कोई ठोस बात बोलने के लिए मजबूर करे। इससे लोगों का भला होगा और उनकी नजर में विपक्ष की हैसियत भी ऊंची उठेगी।

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