राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक सदाचारी, नेक और ईमानदार पुजारी रहता था। वह बहुत ही निर्धन था। एक दिन वह धन-प्राप्ति के उद्देश्य से अपने घर से निकल पड़ा। रास्ते में उसकी मुलाकात एक पहुंचे हुए महात्मा से हुई। पुजारी से बातें करने के बाद महात्मा समझ गए कि यह नेक, ईमानदार व गुणवान है। उन्हीं दिनों विक्रमादित्य अपना राज्य किसी योग्य व्यक्ति को सौंप कर महात्मा के संसर्ग में रहकर शांति से अपना शेष जीवन गुजारना चाहते थे। उन्होंने महात्मा को यह बात बताई हुई थी। महात्मा पुजारी को अपने साथ राजा के पास ले गए और उन्हें सारी बात बताई। महात्मा से पुजारी के बारे में जानकर विक्रमादित्य उसे राज्य सौंपने को तैयार हो गए। पुजारी ने सोचा कि यदि राजा विक्रमादित्य जैसा प्रतापी शासक अपना सब कुछ सौंपकर महात्मा जी के साथ जाना चाहता है, तो इसका अर्थ यह है कि शायद महात्मा के संसर्ग में राज-सुख से भी अधिक सुख प्राप्त होता होगा। वह राजा से बोला, 'महाराज, मैं भला एक मामूली सा व्यक्ति इतना बड़ा राजपाट कैसे संभालूंगा। मुझे तो इसका बिल्कुल भी अनुभव नहीं है। इसके योग्य तो आप ही हैं।' फिर वह महात्मा के पास जाकर बोला, 'गुरुजी, राजा तो राज्य त्यागकर आपके पास आने के लिए उत्सुक हैं। इससे तो यही जान पड़ता है कि इस दुनिया में राज-सुख से भी बड़ा कोई सुख है। मुझे तो आप अपनी शरण में ले लीजिए।' पुजारी की बात सुनकर महात्मा मुस्कराते हुए बोले, 'तुमने ठीक पहचाना। इस दुनिया में राज-सुख से भी बड़ा सुख है शांति से सभी दुर्गुणों पर विजय पाकर सबकी सेवा का संकल्प। इससे स्वत: ही व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।' महात्मा का जवाब सुनकर वह पुजारी उन्हीं के साथ रहकर लोगों की सेवा में अपना जीवन बिताने लगा और कुछ ही दिनों में उसे अहसास हो गया कि उससे अधिक प्रसन्न और संतुष्ट राजा भी नहीं हैं क्योंकि अब उसके पास कोई चिंता नहीं थी।
Thursday, February 18, 2010
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