Friday, September 10, 2010

बेंच 24 सितंबर को फैसला सुनाएगी।

राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा विवाद में जमीन के मालिकाना हक पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच 24 सितंबर को फैसला सुनाएगी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने रिजर्व फैसले को सुनाने की तारीख की सूचना वादियों के वकीलों को दे दी है। इस साल 26 जुलाई सुनवाई पूरी होने के बाद जस्टिस एस.यू. खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस डी. वी. शर्मा की बेंच ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। कोर्ट तीन मामलों में फैसले देगा। पहला, क्या विवादित स्थल पर 1538 से पहले एक मंदिर था? दूसरा, क्या बाबरी कमिटी की तरफ से 1961 में दायर केस अब नहीं ठहरता है? और तीसरा, क्या मुसलमानों ने उलट अधिग्रहण के जरिये अपनी मिल्कियत को पुख्ता किया है? टाइटल का पहला केस 1950 में गोपाल दास विशारद ने यह कहते हुए फाइल किया कि रामलला की पूजा की इजाजत दी जाए। उसी साल परमहंस रामचंद दास ने भी केस फाइल किया, लेकिन फिर उसे वापस ले लिया। तीसरा केस 1959 में निर्मोही अखाड़े ने फाइल किया और उस जगह का कब्जा रिसीवर से मांगा। चौथा केस 1961 में यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दर्ज किया और कब्जा मांगा। छठा केस 1989 में रामलला की तरफ से दाखिल हुआ। फिलहाल उनमें से चार केस चल रहे हैं। किसी धार्मिक स्थल के स्वामित्व को लेकर लड़ा जा रहा यह देश के इतिहास का सबसे लंबा मुकदमा है। वैसे तो बाबरी ढांचा पर मालिकाना हक का मामला तो सौ बरस से भी अधिक पुराना है, लेकिन यह अदालत पहुंचा 1949 में। यह विवाद 23 दिसंबर 1949 को शुरू हुआ जब सुबह बाबरी मस्जिद का दरवाजा खोलने पर पाया गया कि उसके भीतर रामलला की मूर्ति रखी थी। अगले दिन वहां हजारों लोगों की भीड़ जमा हो गई और पांच जनवरी 1950 को डीएम ने सांप्रदायिक तनाव की आशंका से बाबरी ढांचा को विवादित इमारत घोषित कर उस पर ताला लगाकर इसे सरकारी कब्ज़े में ले लिया।
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की जिला अदालत में अर्जी दी कि हिंदुओं को उनके भगवान के दर्शन और पूजा का अधिकार दिया जाए। दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने भी ऐसी ही एक अर्जी दी। 19 जनवरी 1950 को फैजाबाद के सिविल जज ने इन दोनों अर्जियों पर एक साथ सुनवाई की और मूर्तियां हटाने की कोशिशों पर रोक लगाने के साथ साथ इन मूर्तियों के रखरखाव और हिंदुओं को बंद दरवाज़े के बाहर से ही मूर्तियों के दर्शन करने की इजाजत दे दी। साथ ही, अदालत ने मुसलमानों पर पाबंदी लगा दी कि वे इस 'विवादित मस्जिद' के तीन सौ मीटर के दायरे में न आएं। उमेश चंद्र पांडे की एक याचिका पर फैजाबाद के जिला जज के एम पांडे ने एक फरवरी 1986 को विवादित मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दिया और हिंदुओं को उसके भीतर जाकर पूजा करने की इजाजत दे दी। 1987 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक याचिका दायर कर विवादित ढांचे के मालिकाना हक के लिए जिला अदालत में चल रहे चार अलग अलग मुकदमों को एक साथ जोड़कर हाई कोर्ट में एक साथ सुनवाई की अपील की। इसके बाद 1989 में अयोध्या की जिला अदालत में एक याचिका दायर कर मांग की गई कि विवादित ढांचे को मंदिर घोषित किया जाए। हाई कोर्ट ने पांचों मुक़दमों को साथ जोड़कर तीन जजों की एक बेंच को सौंप दिया। 1993 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन बीजेपी सरकार ने विवादित स्थल के आसपास की 67 एकड़ जमीन को सरकारी कब्जे में लेकर वीएचपी को सौंप दिया। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को निरस्त कर सरकार को आदेश दिया था कि विवादित ढांचे के आसपास की यह जमीन दोबारा अधिगृहीत की जाए और उस पर तब तक यथास्थिति बनाकर रखी जाए जब तक हाई कोर्ट मालिकाना हक का फैसला न कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मालिकाना हक का फैसला होने से पहले अविवादित जमीन को भी किसी एक समुदाय को सौंपना धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल नहीं होगा। अपने दावे के पक्ष में हिंदुओं ने 54 और मुस्लिम पक्ष ने 34 गवाह पेश किए। फैसला आने से पहले और उसके बाद यूपी सहित देश के किसी भी राज्य में अप्रिय वारदातों से निपटने के लिए अब लखनऊ और केंद्र की सरकारों के सामने परीक्षा की घड़ी आ गई है। ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि मायावती सरकार पंचायत चुनावों को आगे बढ़ा सकती हैं। फैजाबाद-मथुरा और वाराणसी सहित अतिसंवेदनशील और दूसरे प्रदेशों के बॉर्डर से लगे यूपी के जिलों में सुरक्षा बढ़ाने की कसरत पुलिस-प्रशासन ने शुरू कर दी है। यूपी के एडीजी (कानून और प्रसारण) बृजलाल ने बताया कि 24 सितंबर को शुक्रवार के दिन आने वाले फैसले को ध्यान में रखकर फैजाबाद, अयोध्या और अन्य स्थानों में धारा 144 लगाने का निर्देश पहले ही दिया जा चुका है।

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