Thursday, September 30, 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कई विदेशी यहां आएंगे, उन्हें हमें अपनी एकता का नजारा दिखाना चाहिए।

क्या आप जानते हैं कि बाबरी मस्जिद ध्वंस के टाइम पीरियड में पैदा हुए अयोध्या (और बाकी जगहों के भी) अधिकतर युवाओं को अयोध्या विवाद के बारे में आज से पहले तक कुछ पता नहीं था! जो इस विवाद से थोड़ा बहुत परीचित हैं, उनका कहना है- इसे भूल जाओ और आगे बढ़ो। इन युवाओं के पास इतना वक्त नहीं है कि वे तब हुए सांप्रदायिक दंगों की ओर मुड़ कर देखें। 'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने बुधवार को ऐसे कई युवाओं से बातचीत की जो 1992 या इसके आसपास के टाइम में पैदा हुए हों। हैरानी की बात यह है कि इन युवाओं को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि अयोध्या विवाद का क्या हल निकलता है। ट्विंकल उप्पल, उम्र 18 साल, श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स: सच तो यह है कि इस पूरे मामले पर मुझे कुछ पता नहीं था तब तक जब तक कोर्ट के फैसले को लेकर हंगामा मचना शुरू नहीं हो गया। मेरे ख्याल में एक मस्जिद थी जिसे बीजेपी ने गिरा दिया था। लेकिन, यह बहुत पहले की बात है। मेरी चिंता कोर्ट के फैसले के बाद हम सबकी सुरक्षा को लेकर ज्यादा है।...मैं चाहे मंदिर जाऊं, मस्जिद जाऊं या फिर गुरुद्वारा, मैं एक सा ही स्पिरिचुअल फील करती हूं। तो फिर दिक्कत कहां हैं? अज़रा खातून, बाबरी मस्जिद ढहाने के दौरान आयु दो वर्ष: मुझे इस मामले का पता तब चला जब मैं स्कूल में थी और मैंने कोर्स के एक चैप्टर में जाति और धर्म पर पढ़ा। जमीन के एक टुकड़े को ले कर लड़ने भिड़ने में मुझे कोई पॉइंट नजर नहीं आता है। मैं सभी धर्मों का सम्मान करती हूं। मंदिर मस्जिद, मेरी नजर में सभी सही हैं। कॉमनवेल्थ गेम्स के दौरान कई विदेशी यहां आएंगे, उन्हें हमें अपनी एकता का नजारा दिखाना चाहिए।

Saturday, September 18, 2010

राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला 24 सितंबर को ही आएगा।

राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद पर फैसला 24 सितंबर को ही आएगा। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने शुक्रवार को वह याचिका खारिज कर दी, जिसमें मध्यस्थता के जरिये सुलह कराने की मांग की गई थी। कोर्ट ने कहा कि यह मामले के अंतिम निपटारे में बाधा खड़ी करने की कोशिश है। रमेश चंद्र त्रिपाठी ने विवाद को बातचीत से सुलझाने और फैसला टालने के लिए अर्जी दाखिल की थी। सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अखिल भारत हिंदू महासभा ने इस पर आपत्ति दाखिल की थी। अर्जी को खारिज करते हुए तीन जजों की बेंच ने कोर्ट से बाहर सुलह की इस कोशिश को गलत मंशा से की गई कोशिश माना और 50 हजार रुपये हर्जाना देने का आदेश दिया। बेंच में जस्टिस एस.यू. खान, सुधीर अग्रवाल और डी.वी. शर्मा हैं। बेंच ने कहा, विभिन्न पक्षों से जो वकील पेश हुए, चाहे वे वादी के हों या प्रतिवादी पक्ष के, गंभीरता से इस याचिका का विरोध किया है। हमें इस अर्जी को खारिज करने में कोई हिचक नहीं है। जजों ने कहा कि आवेदक ने बिना किसी विधिसम्मत तर्क या कारण के अर्जी दाखिल की है। हम इस कोशिश को गलत मंशा से की गई मानते हैं और इस पर हर्जाना देगा होगा। अर्जी खारिज करने के पहले जजों ने इस मामले से जुड़े पक्षों से पूछा कि क्या वे समझौते के लिए बात करना चाहते हैं, इस पर किसी ने रुचि नहीं दिखाई। साठ साल पुराने इस मामले का फैसला आने पर हिंसा भड़कने की आशंका को देखते हुए कोर्ट की लखनऊ बेंच ने कहा कि सुरक्षा उपलब्ध कराना राज्य की जिम्मेदारी है। बेंच ने कहा, हमने अखबारों में पढ़ा है कि प्रधानमंत्री ने लोगों को आश्वस्त किया है कि वह किसी आपात स्थिति से निपटने के लिए तैयार है। हम इस पर कमेंट नहीं कर सकते, लेकिन सरकार पर भरोसा है। कानून-व्यवस्था कायम रखने के लिए क्या जरूरी है, किसी शख्स या संगठन की सुरक्षा के लिए क्या जरूरी है, इसका सबसे बढ़िया फैसला सरकार ही कर सकती है। सुरक्षा इंतजाम करना राज्य की जिम्मेदारी है। इसके लिए अधिकारी हैं, जो उपायों का आकलन कर सकते हैं।
इससे पहले ही इस मामले में पक्षकार कह चुके हैं कि इस विवाद का हल सुलह-समझौते के जरिये सम्भव नहीं दिखाई पड़ता। ऐसे में कोर्ट का फैसला जरूरी है। दोनों पक्षों को न्यायपालिका पर पूरा भरोसा है और निर्णय आने के बाद हिंसा की बात पूरी तरह से निर्मूल है। सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और पक्षकार हाजी महमूद की ओर से दर्ज कराई गई आपत्ति में कहा गया कि फैसले के पहले समझौते की अर्जी देना निहित स्वार्थों से प्रेरित है। बोर्ड की ओर से यह भी कहा गया कि पिछले साठ सालों से मामले में समझौते की ओर कोशिश नहीं की गई थी फैसले के पहले इस प्रकार की अर्जी देना गलत है। 13 सितंबर को सुन्नी सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के मुकदमे के विपक्षी संख्या 17 रमेश चन्द्र त्रिपाठी ने विशेष पूर्ण पीठ के ओएसडी को अर्जी देकर कहा था कि वर्तमान समय में देश आतंकवाद, माओवाद सहित अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है ऐसे में इस विवाद को आपसी सुलह समझौते से हल किया जाए। इसपर विचार के लिए विशेष पूर्ण पीठ ने 17 सितंबर की तारीख नियत करते हुए पीठ ने दोनों पक्षों से आपत्तियां प्रस्तुत करने को कहा था। हिन्दू महासभा की ओर से दायर आपत्ति में कहा गया कि फैसला आने के पहले किसी प्रकार की कोई अर्जी दायर नहीं की जा सकती। यह भी कहा कि दोनों पक्षों को न्यायापालिका पर पूर्ण विश्र्वास है तथा फैसले से पहले किसी प्रकार का सुलह समझौता संभव नहीं है।

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस मनाते हुए भाषा के प्रश्न पर आधुनिक भारत के स्वप्नदष्टा जवाहरलाल नेहरू के विचारों को याद करना समीचीन होगा। आजादी के प्रारंभिक वर्षों में राजभाषा के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक स्पष्ट विभाजन रेखा दिखाई देने लगी थी। नेहरू ने इंग्लिश को देश की राजभाषा घोषित करने की दक्षिण के कुछ नेताओं की मांग दृढ़तापूर्वक खारिज कर दी, लेकिन इस बात का भी पूरा ध्यान रखा कि इस संवेदनशील मुद्दे पर दक्षिण की जनता की भावनाओं को कोई ठेस न पहुंचे। उन्होंने प्रमुख राजनीतिज्ञों, मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अधिकारियों को लिखे अपने पत्रों में भाषा के सवाल पर अपना रुख साफ करते हुए जन-जन की भाषा के रूप में हिंदी की अहमियत समझाई और बच्चों को उनकी मातृभाषा में शिक्षित करने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर जोर दिया था। पंडित नेहरू ने अपने बेबाक अंदाज में सरकारी भाषा की सरलता और अनुवाद की जटिलता पर भी चर्चा की और समय के साथ चलने के लिए विदेशी भाषाएं सीखने की जरूरत बताई। इस संबंध में नेहरू जी के पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
6 जनवरी 1958 को मदास में तमिल इनसाइक्लोपीडिया के पांचवें खंड के विमोचन के मौके पर अपने भाषण में नेहरू ने भाषा के सवाल का खासतौर से उल्लेख किया था। उन्होंने कहा, ''आज भारत में भाषा को लेकर बड़ी बहस चल रही है, लेकिन इस मुद्दे के सबसे खास हिस्से का समाधान हो चुका है। भले ही बारीकियां कुछ भी हों, लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, भारत में यह बात स्थापित और स्वीकार हो चुकी है कि पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा ही होनी चाहिए। यह तमिल, बांग्ला या गुजराती जैसी महान भाषाओं या अन्य भाषाओं पर ही नहीं, बल्कि पूवोर्त्तर भारत की आदिवासी बोलियों पर भी लागू होना चाहिए, जिनकी कोई लिखित भाषा नहीं है। व्यावहारिक तौर पर यह कठिन हो सकता है, लेकिन थ्योरी यह है कि बच्चे को मातृभाषा में शिक्षित करने की व्यवस्था राज्य को करनी चाहिए, भले ही बच्चा कहीं का भी हो। मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के निर्णय के साथ ही भारत में एक बड़ा परिवर्तन आ गया है। इंग्लिश अभी तक शिक्षा का माध्यम थी, जबकि इस निर्णय से वह तत्काल दूसरी श्रेणी में आ जाती है।'' नेहरू जी ने 26 मार्च 1958 को सी. राजगोपालाचारी को भेजे अपने पत्र में लिखा कि ''भारत में वास्तविक और बुनियादी परिवर्तन इस बात से नहीं आ रहा है कि हिंदी धीरे-धीरे इंग्लिश का स्थान ले रही है, बल्कि इससे आ रहा है कि हमारी क्षेत्रीय भाषाओं का विकास हो रहा है और उनका इस्तेमाल बढ़ रहा है। ये क्षेत्रीय भाषाएं शिक्षा का माध्यम बनेंगी और सरकारी कार्यों में इनका इस्तेमाल होगा। ये ही बुनियादी तौर पर इंग्लिश का स्थान लेंगी। यह अच्छा परिवर्तन है या नहीं, इसपर बहस हो सकती है लेकिन यह परिवर्तन अनिवार्य रूप से होगा और इससे भारत में इंग्लिश के दर्जे पर जबर्दस्त असर पडे़गा। भारत में इंग्लिश इसलिए फली-फूली क्योंकि वह शिक्षा के माध्यम के साथ-साथ हमारे सरकारी और सार्वजनिक कामकाज की भी भाषा थी। इंग्लिश और हिंदी के बीच कथित टकराव इस बडे़ सवाल का एक छोटा सा पहलू है। इन दोनों में से कोई भी भाषा गैर-हिंदीभाषी राज्यों में शिक्षा का माध्यम नहीं होंगी। शिक्षा और कामकाज का आधार क्षेत्रीय भाषा होगी और ये दोनों द्वितीय भाषाएं होंगी। मेरे मन में यह जरा भी संदेह नहीं है कि हमारी जनता के विकास के लिए क्षेत्रीय भाषा आवश्यक है और गैर-हिंदीभाषी राज्यों में अंग्रेजी या हिंदी के माध्यम से लोगों का संपूर्ण विकास नहीं हो सकता।'' इसी पत्र में उन्होंने लिखा- ''हमें आधुनिक समय में हो रहे परिवर्तनों को समझने के लिए विदेशी भाषाओं का ज्ञान भी अर्जित करना चाहिए। यह स्पष्ट है कि सभी बड़ी विदेशी भाषाओं में इंग्लिश हमें ज्यादा माफिक पड़ती है। अत: हमें इंग्लिश को एक महत्वपूर्ण भाषा के रूप में जारी रखना होगा। लेकिन मेरा मानना है कि भारत में व्यापक रूप से दूसरी विदेशी भाषाओं का ज्ञान होना भी आवश्यक है। कांग्रेस के गौहाटी अधिवेशन में भाषा के प्रश्न पर पारित प्रस्ताव में इस पहलू पर विशेष जोर दिया गया था और कहा गया था कि हमारी वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली अंतरराष्ट्रीय टमिर्नोलॉजी से मेल खानी चाहिए। साथ ही हमारी भाषा में अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रचलित वैज्ञानिक शब्दों को ज्यादा से ज्यादा शामिल किया जाना चाहिए। स्वाभाविक है कि ये शब्द ज्यादातर इंग्लिश के होंगे। इनके अलावा ये शब्द भारतीय भाषाओं में साझा होंगे या होने चाहिए ताकि मानव ज्ञान के इस विस्तृत क्षेत्र में वे एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक आ सकें।'' राजगोपालाचारी को भेजे उपरोक्त पत्र में नेहरू ने हिंदी के बारे में लिखा कि ''यह अभी विकासशील अवस्था में है। लेकिन यह भी तथ्य है कि अपने विविध रूपों में इसकी पहुंच भारत के बहुत बड़े हिस्से तक है। उर्दू के तौर पर इसका दायरा पाकिस्तान तक फैला हुआ है। पाकिस्तान से आगे मध्य एशिया में काफिलों के गुजरने वाले रास्तों में भी उर्दू का ज्ञान काफी उपयोगी होता है। अत: हिंदी और उर्दू के जरिए, जिनमें लिपियां शामिल हैं, हम भारत से भी आगे दूर-दूर तक पहुंच जाते हैं। राजगोपालाचारी के ही नाम एक अन्य पत्र में नेहरू ने लिखा कि मुझे यह तर्कसंगत नहीं लगता कि इंग्लिश को भारत की राष्ट्रीय या केंद्रीय भाषा घोषित किया जाए। इससे मुझे ठेस लगती है। यदि मेरे मामले में ऐसा है तो लाखों लोगों को कैसा लगता होगा। अनेक देशों की यात्राएं करने के बाद मैं जानता हूं कि इंग्लिश को औपचारिक रूप से अपनाने पर कुछ देश आश्चर्य करेंगे और कुछ हमें नफरत से देखेंगे। सच यह है कि वे हमसे अपनी ही भाषा या अंग्रेजी को छोड़कर किसी अन्य भारतीय भाषा में बात करना ज्यादा पसंद करेंगे। ''

Friday, September 10, 2010

बेंच 24 सितंबर को फैसला सुनाएगी।

राम जन्मभूमि बाबरी ढांचा विवाद में जमीन के मालिकाना हक पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच 24 सितंबर को फैसला सुनाएगी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने रिजर्व फैसले को सुनाने की तारीख की सूचना वादियों के वकीलों को दे दी है। इस साल 26 जुलाई सुनवाई पूरी होने के बाद जस्टिस एस.यू. खान, जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस डी. वी. शर्मा की बेंच ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। कोर्ट तीन मामलों में फैसले देगा। पहला, क्या विवादित स्थल पर 1538 से पहले एक मंदिर था? दूसरा, क्या बाबरी कमिटी की तरफ से 1961 में दायर केस अब नहीं ठहरता है? और तीसरा, क्या मुसलमानों ने उलट अधिग्रहण के जरिये अपनी मिल्कियत को पुख्ता किया है? टाइटल का पहला केस 1950 में गोपाल दास विशारद ने यह कहते हुए फाइल किया कि रामलला की पूजा की इजाजत दी जाए। उसी साल परमहंस रामचंद दास ने भी केस फाइल किया, लेकिन फिर उसे वापस ले लिया। तीसरा केस 1959 में निर्मोही अखाड़े ने फाइल किया और उस जगह का कब्जा रिसीवर से मांगा। चौथा केस 1961 में यूपी सुन्नी वक्फ बोर्ड ने दर्ज किया और कब्जा मांगा। छठा केस 1989 में रामलला की तरफ से दाखिल हुआ। फिलहाल उनमें से चार केस चल रहे हैं। किसी धार्मिक स्थल के स्वामित्व को लेकर लड़ा जा रहा यह देश के इतिहास का सबसे लंबा मुकदमा है। वैसे तो बाबरी ढांचा पर मालिकाना हक का मामला तो सौ बरस से भी अधिक पुराना है, लेकिन यह अदालत पहुंचा 1949 में। यह विवाद 23 दिसंबर 1949 को शुरू हुआ जब सुबह बाबरी मस्जिद का दरवाजा खोलने पर पाया गया कि उसके भीतर रामलला की मूर्ति रखी थी। अगले दिन वहां हजारों लोगों की भीड़ जमा हो गई और पांच जनवरी 1950 को डीएम ने सांप्रदायिक तनाव की आशंका से बाबरी ढांचा को विवादित इमारत घोषित कर उस पर ताला लगाकर इसे सरकारी कब्ज़े में ले लिया।
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की जिला अदालत में अर्जी दी कि हिंदुओं को उनके भगवान के दर्शन और पूजा का अधिकार दिया जाए। दिगंबर अखाड़ा के महंत और राम जन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष परमहंस रामचंद्र दास ने भी ऐसी ही एक अर्जी दी। 19 जनवरी 1950 को फैजाबाद के सिविल जज ने इन दोनों अर्जियों पर एक साथ सुनवाई की और मूर्तियां हटाने की कोशिशों पर रोक लगाने के साथ साथ इन मूर्तियों के रखरखाव और हिंदुओं को बंद दरवाज़े के बाहर से ही मूर्तियों के दर्शन करने की इजाजत दे दी। साथ ही, अदालत ने मुसलमानों पर पाबंदी लगा दी कि वे इस 'विवादित मस्जिद' के तीन सौ मीटर के दायरे में न आएं। उमेश चंद्र पांडे की एक याचिका पर फैजाबाद के जिला जज के एम पांडे ने एक फरवरी 1986 को विवादित मस्जिद के ताले खोलने का आदेश दिया और हिंदुओं को उसके भीतर जाकर पूजा करने की इजाजत दे दी। 1987 में उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच में एक याचिका दायर कर विवादित ढांचे के मालिकाना हक के लिए जिला अदालत में चल रहे चार अलग अलग मुकदमों को एक साथ जोड़कर हाई कोर्ट में एक साथ सुनवाई की अपील की। इसके बाद 1989 में अयोध्या की जिला अदालत में एक याचिका दायर कर मांग की गई कि विवादित ढांचे को मंदिर घोषित किया जाए। हाई कोर्ट ने पांचों मुक़दमों को साथ जोड़कर तीन जजों की एक बेंच को सौंप दिया। 1993 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन बीजेपी सरकार ने विवादित स्थल के आसपास की 67 एकड़ जमीन को सरकारी कब्जे में लेकर वीएचपी को सौंप दिया। 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले को निरस्त कर सरकार को आदेश दिया था कि विवादित ढांचे के आसपास की यह जमीन दोबारा अधिगृहीत की जाए और उस पर तब तक यथास्थिति बनाकर रखी जाए जब तक हाई कोर्ट मालिकाना हक का फैसला न कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि मालिकाना हक का फैसला होने से पहले अविवादित जमीन को भी किसी एक समुदाय को सौंपना धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल नहीं होगा। अपने दावे के पक्ष में हिंदुओं ने 54 और मुस्लिम पक्ष ने 34 गवाह पेश किए। फैसला आने से पहले और उसके बाद यूपी सहित देश के किसी भी राज्य में अप्रिय वारदातों से निपटने के लिए अब लखनऊ और केंद्र की सरकारों के सामने परीक्षा की घड़ी आ गई है। ऐसे में आशंका जताई जा रही है कि मायावती सरकार पंचायत चुनावों को आगे बढ़ा सकती हैं। फैजाबाद-मथुरा और वाराणसी सहित अतिसंवेदनशील और दूसरे प्रदेशों के बॉर्डर से लगे यूपी के जिलों में सुरक्षा बढ़ाने की कसरत पुलिस-प्रशासन ने शुरू कर दी है। यूपी के एडीजी (कानून और प्रसारण) बृजलाल ने बताया कि 24 सितंबर को शुक्रवार के दिन आने वाले फैसले को ध्यान में रखकर फैजाबाद, अयोध्या और अन्य स्थानों में धारा 144 लगाने का निर्देश पहले ही दिया जा चुका है।

Friday, September 3, 2010

'जय कन्हैया लाल' के जयकारे

जन्माष्टमी पर यूपी के अधिकांश मंदिरों में 'जय कन्हैया लाल' के जयकारे और 'गिरधर नागर नंदा , भजो रे मन गोविंदा' के भजन गूंजे। श्रीकृष्ण के स्वागत के लिए राजधानी लखनऊ सहित पूरा राज्य धार्मिक उल्लास में डूबा हुआ नजर आया। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के लिए अधिकांश मंदिर सजधज कर तैयार नजर आए। कुछ स्थानों पर बुधवार को ही जन्माष्टमी मनाई गई थी। कृष्ण जन्मोत्सव के लिए राजधानी लखनऊ के गोमतीनगर स्थित राधाकृष्ण मंदिर, चौक स्थित कोनेश्वर मंदिर और चिनहट स्थित राधाकृष्ण मंदिर को भव्य तरीके से सजाया गया। यहां गुरुवार को श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाया जा रहा है। राज्य के विभिन्न हिस्सों के मंदिरों में कृष्ण भक्त सुबह से ही जयकारे लगाते नजर आए। लखनऊ में पुलिस लाइन सहित सैकड़ों स्थानों पर मनमोहक झांकियां सजाई गईं। कई स्थानों पर गुरुवार शाम को भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। कान्हा की भक्ति में डूबी ब्रजभूमि मथुरा और उसके आसपास फैले ब्रज मंडल में उत्साह और खुशी का माहौल रहा। विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण के जन्मदिन के रूप में यहां जन्माष्टमी पर्व उल्लास के साथ मनाया गया। इस बार जन्माष्टमी की तिथि को लेकर थोड़ा भ्रम रहा लेकिन इसके बाद भी लोगों के उल्लास में कोई कमी नहीं है। वृंदावन और मथुरा के मंदिरों में एक लाख से ज्यादा भक्त पहुंचे। वृंदावन स्थित इस्कॉन मंदिर में बड़ी संख्या में विदेशी श्रद्धालु पहुंचे और कीर्तन में हिस्सा लिया। प्रसिद्ध बांके बिहारी मंदिर में बुधवार को ही जन्माष्टमी मना ली गई थी। आगरा में यमुना किनारे का मथुराधीश मंदिर विशेष आकर्षण रहा। शहजादी मंडी, लॉयर्स कॉलोनी, विजय नगर और शहर के अन्य हिस्सों के राधा कृष्ण मंदिर दमकते नजर आए।